बेटी-छंद मुक्त कविता
घर
परिवार
माता-पिता
दो-दो घरों की
रौनक
होती है बेटी.
समाज की शान
देश का उत्थान
परिवार का अभिमान
ख़ुद में खानदान
धरती-आससमान
कुटुंब की आन
घर की पहिचान
श्रृष्टि का अवदान
होती है बेटी.
आँखों का नूर
रिवाज-दस्तूर
सबकी ख़ुशी में खुश
सबके ग़मों से चूर
स्वार्थ से दूर
अन्याय पर क्रूर
समाज में मजबूर
होती है बेटी.
रोको ये सितम
बढाओ मत तम
करो नहीं वहम
छोडो अब अहम
आने दो उसको
जीने दो उसको
बेटों से नहीं कम
होती है बेटी.
संसार नहीं होगा
संस्कार नहीं होगा
बिना बेटियों के
उद्धार नहीं होगा
बेटी के बिना श्रृष्टि नहीं होती
बेटी के बिना दृष्टि नहीं होती
बेटी के बिना प्रकृति नहीं होती
बेटी में गन्दी प्रवृत्ति नहीं होती
पर्याय सही मान का
होती है बेटी.
@डॉ.रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवक्ता/साहित्यकार
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