बेटी का ससुराल
पीहर आयी बेटी से पिता ने पूछा,
उसकी उदासी का कारण माँ ने पूछा,
परेशानी है या कोई दुख,
चेहरा क्यों धूमिल पडा है,
गम की परछाइयां साफ दिखती,
हुआ क्या है कुछ तो बता,
कुछ न बोलती बस सुबक-सुबक कर,
रोती रही लगातार.एक शब्द न बोली,
मौन उसका बोल रहा था सब कुछ,
सहेली को देख फूट पडा सारा दुख,
गले लग कर बहे अश्रु धाराप्रवाह,
बोली नहीं मैं दुखी नहीं हूँ,
पर यह भी उतना ही सच है कि,
मैं सुखी भी नहीं हूँ वहाँ,
बात-बात पर ताना,
अपनी बात कह न सकूँ,
मेरी.कुछ न सुनना,बस अपनी चलाना,
उसकी हर बात का जवाब,
क्यों करूँ उसकी हर शंका का समाधान,
अपनी जरूरत को मोहताज मैं,
कैसी परीपाटी सदियों से चली,
न चाहूँ तो भी जी रही हूँ,
कितने हैं गम जो न जाने ,
कब से पी रही हूँ,
क्यों जुदा हुई अपने ही घोंसले से,
क्यों विदा हुई माँ के आँगन से,
काहे को भेजा परदेश मुझे.
ऐसी ही रीत चली आयी है,”बेटी”!
माँ बोली:”भेजा,तेरी ही ससुराल तुझे!”
©®आरती लोहनी