बेटी का पत्र माँ के नाम
माँ जब डोली चढ़ कर आई,
मैं अपने ससुराल ।
सबका हाल पूछने में
भूल गई मैं अपना हाल ।
माँ एक – एक कर के
मैं रखती हूँ सबका ख्याल।
सबका खाना , सबकी दवा
मैं पहुँचाती रहती हूँ
इस क्रम में कभी- कभी माँ ।
मैं खुद खाना भूल जाती हूँ।
माँ तेरे हाथ का खाना मुझको
बहुत ही याद आता है ,
यों तवे से फुल्के का
सीधे प्लेट में आना ,
और उसे हाथ से तोड़ते हुए ,
अपने मुँह तक ले जाना ।
उसके भापों से मुँह का मेरा,
थोड़ा सा पक जाना।
तेरा वों गलास में पानी लेकर
भागी-भागी आना ।
इतनी जल्दी क्या थी ,
ऐसा कहकर डाँट लगा जाना।
आज उस डाँट पर भी माँ
मुझको बहुत प्यार आता है।
जब हाल पूछने मेरा
यहाँ कोई नहीं आता है।
जब भाग दौड़ की जिन्दगी से
मैं कभी थक जाती हूँ ।
पैर को दर्द से जकड़ी हुई
जो पाती हूँ।
माँ तेरी याद मुझको बहुत आती है।
तेरा वो होले से गरम तेल को लेकर आना ।
चुपके से पैरों मे मालिस कर
धीरे से कहती जाना
क्या जरूरत थी तुमको
इतनी भाग दौड़ करने की।
माँ तेरे उस डाँट में
प्यार झलकता रहता था।
मेरे दर्द का एहसास
तेरी आँखों में दिखता था।
माँ तेरी छवि का कोई छवि
कैसे यहाँ पर लाऊँ ,
पहले वाला वह सुख माँ
फिर कहाँ से पाऊँ ।
माँ हम हो जाएँ कितने बड़े भी
तेरी कमी सदा खलती हैं।
पहले वाला वह सुख माँ
अब मुझे कहाँ मिलती हैं।
– अनामिका