बेटियों की हाय (कविता)
बेटिओंकी हाय (कविता)
सितम से हार कर जब,
लब हो जाते हैं खामोशें।
अपने हक केलिए लड़ते हुए’
जब ख़त्म हो जाये जोश ।
जब टूट जाती है शैतानो की सीमायें ।
और वह गुरुर में अंधे होजाएं.
ज़ुल्म के नशे में चूर हो जायें ।
पागल हो जायें .
तब ! हाँ तब !
लेती है कुदरत अंगड़ाई ।
एक कयामत उभरती है.
सब तरफ बर्बादी देती है दिखाई ।
तब यह ख़ामोशी, यह आह,
तूफान बनकर टूटती है ।
बरसों से दबी ,कुचली हुई ताक़त,
ज़लज़लों से झूझती है ।
साथ जो मिल जाय एक बार समय का,
उसके तो फिर कहने ही क्या!
करवट बदल ले वोह बस एक बार!
तो रावण भी क्या !
उखाड़ सकती है पाप की जड़ को.
एक मजबूर, मजलूम और मासूम की हाय ,
क्या रंग लाती है ?
जब कहकशां टूट कर शैतानो पर गिरती है ।
तो यह जानलो ताक़त वालो!,
ज़ुल्म की भी सीमा होती हैें।
जब जोश में आती है कुदरत ,
और रंग लाती है बेटियों की हाय ।