बेटियां
मेरे देश की बेटियों
तुम नाजुक हो
बचपन से सुनती आई हो! 2
संध्या पहले घर आने की
जुल्मों को सहते आने की
ऊँचे बोल नहीं करने की
चीर सम्हालके चलने की
बचपन से सुनती आई हो २
नजर झुकाकर चलने की
छुप छुप कर कदम बढ़ाने की
अपने पंखों की उड़ान को
सीमित गति में करने की
बचपन से सुनती आई हो! 2
सब्र-सागर तेरा गहना
तू मूरत है धीरज की
सवाल नहीं करने की,और
हद से आगे नहीं बढ़ने की
बचपन से सुनती आई हो! 2
स्थिर हो…
अब और नहीं सुनना तुझको
अब और नहीं सहना तुझको
पतितों के रूप में हे बेटी
अब और नहीं रहना तुझको
अब तज दो ये नाजुकता
फूलों-सी ये कोमलता
फूलों को तो प्रति पग पर
ठुकराते जग को देखा है
अब कंटक बनने का बेटी,
वक्त तुम्हारा आया है! 2
अब और नहीं तहजीब के खातिर
नियम,रूढ़िवाद के खातिर
बंधी हुई हो जिस चादर में
उस चादर के चीर-हरण का
वक्त तुम्हारा आया है! 2
अब सहना नहीं लड़ना सीखो
खामोश नहीं,कहना सीखो
झुकने का अब समय नहीं
खुले आसमां में उड़ने का
अब वक्त तुम्हारा आया है! 2
सवाल करो,माँगो जवाब
और अपने हक के लिए लड़ो
अपने कोख के पुतलों से
प्रतिपल का हिसाब करने का
अब वक्त तुम्हारा आया है!
अब वक्त तुम्हारा आया है!!
कवि- “करन” केसरा