” बेटियां “………….
” बेटियाँ ”
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ये पूछो मत मुझसे क्या होती है बेटी
न शब्द न परिभाषा में बंधती है बेटी।
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चिड़िया नहीं, ममता से भरी मानव है
हँसते हुए बहुत कुछ सहती है बेटी ।
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सबको अपना समझती,कहाये ‘परायी’
परिवार से बहुत लगाव रखती है बेटी ।
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खुद दु:ख सहकर भी खुशी देती है
अपने दर्द बयां कम करती है बेटी ।
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दूर रहकर भी दिल में रखती सबको
स्नेह भरा दिल,पर भावुक होती है बेटी।
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भावुक कर देती , जाती जब ससुराल
दो कुल को आपस में जोड़ती है बेटी ।
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दर्जा बराबरी का दंभ भरता समाज पर
घर में भी इससे वंचित रहती है बेटी।
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कटु सत्य,आज भी कम खुशी होती
‘मन में’ घर में जब जन्म लेती है बेटी।
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” काश, बेटी न होकर होती मैं भी बेटा ”
इसी विडंबना से घायल सोचती है बेटी ।
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शब्द कम हैं, कहूं ‘बेटियों’ के बारे में
साहस अदम्य फिर भी सहमती है बेटी।
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गर सुविधा मिले आगे बढ़ने की “पूनम”
तो हर क्षेत्र में आगे बढ़ सकती है बेटी
स्वरचित:-पूनम झा।कोटा,राजस्थान
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