बेटियाँ
बाबुल के आंगन की बेटियां होती हैं मोमबत्तियाँ
कभी जलती हैं बुझती हैं जैसे होंती हैं फुलझड़ियाँ
बड़े लाडो में पलती हैं फूलों सी होती हैं नाजुक
प्यार दुलारों में फलती हैं होती हैं बड़ी ही भावुक
फिर क्यों दुत्कारी जाती हैं होती हैं बुरी घड़ियाँ
कभी जलती हैं बुझती हैं जैसे होती हैं फुलझड़ियाँ
प्रकृति की श्रेष्ठ रचना हैं पर घुट घुट के जीतीं हैं
बेटा-बेटी का करें अन्तर इस भेदभाव में जीतीं हैं
कब मिलेगा मूल मन्तर जब टूटेगी ये कुल बेड़ियाँ
कभी जलती हैं बुझती हैं जैसे होती हैं फुलझड़ियाँ
मायके में पराई होती कभी ससुराल कहे न अपना
कुटम्ब-कुटीर सींचन में अधूरा रहे खुद का सपना
जब कहेंगे सब अपना आँएगी वो खुशनसीब घड़ियाँ
कभी जलती हैं बुझती हैं जैसे होती हैं फुलझड़िया
कभी भाई के पहरे में कभी पिता के साये में जीती हैं
कभी पति के रौब तले कभी बेटों के कहने पर जीती हैं
कब जिंएगी जीवन अपना जब खांएगी रसभरियाँ
कभी जलती हैं बुझती हैं जैसे होती हैं फुलझड़ियाँ
सुखविंद्र सिर्फ मनसीरत