बेटियाँ
बेटियाँ
बेटियाँ,
बचपन से ही
अपने माता पिता की
‘माँ’ बन जातीं हैं,
नन्ही हथेली से सहलाती हैं
पिता का दुखता माथा,
छिंतीं हैं माँ के हाथ से
चकला बेलन।
अपनी तोतली बोली में
पूछँतीं है सुख-दुख
और बे-अनुभवी आँखों से ही
पढ़ लेतीं हैं,
माँ बाप की आँखों की
मूक भाषा/अनकहा दर्द!
वक़्त पड़ने पर
माँ बाप दोनों की भूमिका
बखूबी निभाती है,
और कभी दोनों का
सहारा बन जाती हैं,
हर मुश्किल में
साहस से ज्यादा लड़ जाती हैं
बेटियाँ बेल की तरह
बढ़ जातीं हैं।
जैसे जैसे बढ़तीं हैं
हर पल एक नया
परिवार गढतीं हैं,
बांध कर रखतीं हैं
माँ बाप की दुनिया
सहेजती रहतीं है
छोटी छोटी टूटी हुई चीजें
बेटियाँ,
दूर होकर भी
कभी नहीं होतीं दूर
अपनी जड़ों से,
ता-उम्र करतीं हैं प्यार
छोटों-बड़ों से।
बेटियाँ
घर-आंगन में
खूब सजतीं हैं
सच तो यही है
कि
परिवार और दुनिया
बेटियाँ ही रचतीं हैं
बेटियाँ ही रचतीं है ।
मंजूषा मन