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14 Jan 2017 · 1 min read

बेटियाँ

बन्द दरवाजों के पल्ले
खुलने लगे हैं
सूरज की पहली किरण की लाली
उन्हें छूने लगी है
पथरीली,अनचीन्ही,उदास पगडंडियों पर
अपने अरमानों की रंगोली
वो रचने लगी हैं
मेरे गाँव की ‘बेटियाँ’ अब
अपने अँधेरे आसमान को
खुद के दीये से
रोशन करने लगी हैं
अनजानी, अजनबी,दुर्गम शिखरों पर
अब ये बेटियां पहुंचने लगी हैं।

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