बेटियाँ
कितना रुलाती हैं बेटियाँ
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कभी हँसाती तो कभी, रुलाती हैं बेटियाँ।
न जाने दर्द कितना यूँ छुपाती हैं बेटियाँ।
तुमसे ही बना वजूद मिरा ये,
ऐहसास ये माँ को,कराती हँ बेटियाँ।
अश्क देख ना पाऊँ आँखों में तुम्हारी,
प्यार इतना माँ से जताती हैं बेटियाँ।
ना रही आरजू अब कुछ पाने की,
यूँ मन अपना,समझाती हैं बेटियाँ।
सोचो अस्मत के इन भूखे भेड़ियों से,
खुद को कैसे बचाती हैं अब बेटियाँ।
देखी जो बेरुखी,बुढापे के सहारे की,
माँ-बाप को गले से ,लगाती हैं बेटियाँ।
बोझ नहीं होती माँ-बाप पर बेटी,
बार-बार ये, बताती हैं बेटियाँ।
छोड़ के घर,अपने बाबुल का फिर,
पराये घर को,सजाती हैं बेटियाँ।
रुखशत हों जब,अपने ही आशियाने से ‘देव’
तो हर किसी को ,कितना रुलाती हैं बेटियाँ।