बेटियाँ——–“सुन रहे हो बाबा”
एक बेटी की बात अपने पिता से—-
सुन रहे हो बाबा !
जगाये थे जब मैंने
दबे अहसास
लिख डाले थे, अधरों पर
रुके अल्फाज़,
तुमने आँखें तरेर
मचाया था कोहराम
और डायरी जला
लगाया था विराम,
बारहवीं उत्तीर्ण होते ही
बजा दी थी शहनाई
पंख दिए थे काट
मुरझाई थी तरुणाई।
सुन रहे हो बाबा !!
कितना था समझाया
न सुनी माँ की तुमने
घुटे अरमानों तले
ली थी विदाई हमने,
ससुराल पहुँच बंध गयी
गृहस्थी के बोझ तले
मसल गयी कली
पुरुषत्व के वजूद तले,
बन चार बच्चों की माँ
रम गयी दरख़्तों में,
भावों को था बहा दिया
अल्फ़ाज़ों को अश्क़ों में।
सुन रहे हो बाबा !!!
पचास बसंत आज पार किये
पर तुमको भूल न पाई मैं
कविता रचने का अहसास
शायद तुम्हीं से पाई मैं,
तुम्हारे रौद्र रूप को याद कर
लिख डालीं दो चार किताब
दिया जो तुमने दर्द मुझे
वो निकल पड़े बन अल्फाज़,
ढूँढ रही अपने अंदर
बचपन की वो जली डायरी
क्या दे सकोगे मुझको तुम
खोई हुई पहली शायरी !
खोई हुई पहली शायरी !!
खोई हुई पहली शायरी !!!
नीरजा मेहता