“बेजुबान बेटी”
माँ के अस्तित्व में आते ही
स्पर्श की उन नाड़ियो से
आनंद और स्नेह
रोम-रोम में भर दिया
दिन प्रतिदिन सिंचित होती गयी
हर्ष से कह उठी “माँ”
लेकिन तडफ उठी माँ
यह कैसा चिंतन क्रिया कलाप
पृथ्वी पर पैर रखने का आवेग
क्या यू ही व्यर्थ हो जायेगा
जुबा से नहीं स्पर्श से
माँ का दुःख समझ आया
यह प्रथ्वी नहीं मेरी
अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग आया
उठो माँ बन जाओ शक्ति
रेगिस्तान के इस तूफान को
बनने दो मत संस्कृति
हौसलों को परास्त कर
बन जाओ मेरी सृष्टि
न्याय इस बेदी पर माँ
जीवन का अभयदान दो |