बेज़ार सफर (कविता)
बेज़ार सफर
बाजार हुए बैठे हैं
की दिल से लाचार हुए बैठे हैं
बस जेहन में है
एक सवालों की गुत्थी
ना उलझती है ना सुलझती है
बस एक अजीब कसमकस लिए बैठे हैं ना हंस पाते हैं
ना रो पाते हैं
दिल में अजीब ख्यालात हैं जैसे कोई पत्थर सीने में लिए बैठे हैं
भला क्या फर्क पड़ता है किसी को
क्यों हम किसी का मलाल लिए बैठे हैं तनहा है यहां कोई किसी के लिए फिर जाने क्यों हम ये अपना हाल लिए बैठे हैं एक रहती है टिश हर पल
दिल में चुभन बनकर
चुभती है किसी की रुसवाई
कांटे की तरह सीने में कि हम अपने ही एहसासों को लहू लहन लिए बैठे हैं
सीने से लगाते हैं उसकी तस्वीर को अश्कों से अश्क बहते हुए
क्यों सोचते हैं हम उसको होगा दर्द का एहसास
अपने ही पागलपन से हम पागल हुए बैठे हैं
आखिर कौन है वह मेरा
अपना है क्यों रुकता नहीं
गैर है तो फिर जाता नहीं क्यों नहीं
इस सवाल से ही हम खुद की कब्र बनाए बैठे हैं
रोते हुए गर देखता हूं आईना
आईना भी आंसू देख कर हंस देता है कहता है कौन है तेरा
इस तनहा सफर का साथी हंसना रोना ही तो साथ चलेगा सफर में तेरे
आखिर क्यों लाचार हुए बैठा हैं