“बेज़ारी” ग़ज़ल
हम गीत, मिलन के भले ही, गाए हुए हैं,
इक दर्द को, सीने से पर, लगाए हुए हैं।
प्यासी है ज़मीं, अब्र रूठ कर जो चल दिए,
मुद्दत से, आसमां को, आज़माए हुए हैं।
टेढ़ी नज़र का अब अदू की, ध्यान क्या धरें,
हम दोस्तों से ज़ख़्म, दिल पे, खाए हुए हैं।
बेज़ारे-तग़ाफ़ुल हैं, गुफ़्तगू न हो सकी,
अँदाज़ उसके, फिर भी हमें, भाए हुए हैं।
मेहनत के, पसीने का, इत्र, रास है हमें,
हम सर से, तेज़ धूप मेँ, नहाए हुए हैं।
कहते हैं अपनी बात, भले सादगी से ही,
चर्चा मेँ, फिर भी हम, जहाँ की,आए हुए हैं।
मुस्कान, लबों पर है मिरे, तैरती भले,
आँखों में समन्दर को पर, छुपाए हुए हैं।
दुनिया की रिवायत,कोई सिखलाएगा भी क्या,
हम इश्क़-ए-दस्तूर को, निभाए हुए हैं।
साहिल से कहो, ख़ुद ही कभी पास आ मिले,
मौजों को अपने दिल मेँ हम, समाए हुए हैं।
मांगें भी उससे क्या, है पसोपेश ये “आशा”,
रहमत हरेक, उसकी, हम तो, पाए हुए हैं..!
अब्र # बादल, clouds
अदू # दुश्मन, foe
बेज़ारे-तग़ाफ़ुल # ( प्रेयसी के) उपेक्षापूर्ण रवैये से खिन्न, unhappy due to neglectful attitude ( of the beloved)
रहमत # कृपा, mercies