बेचैन ज़िंदगी
खौफ़ के साए में लम्हे किस कदर खुशगवार होगें ,
हर वक्त कश्मकश की बसर के ये पल सुक़ूनवार कैसे होंगे,
आज़ाद ज़िंदगी कफ़स में क़ैद होकर रह गई है,
परकटी परवाज़ को बेचैन होकर रह गई है,
डरता हूं जिस्मों की दूरी दिलों की दूरी ना बन जाए,
हर नजर एक दूसरे के लिए शक का बा’इस न बन जाए ,
ना जाने कब होगा खत्म बेचैनी का ये सिलसिला,
लौटेगी फिर मसर्रत की सहर और होगा हर दिल खुशी से खिला,