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15 Feb 2022 · 2 min read

*बेचारा मतदाता (हास्य-व्यंग्य)*

बेचारा मतदाता (हास्य-व्यंग्य)
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मतदान के अगले दिन मतदाता बेचारा मारा-मारा फिरता है और उसे कोई पूछने वाला नहीं होता है । एक दिन पहले क्या बढ़िया आवभगत हो रही थी ! उम्मीदवार हाथ जोड़े खड़ा था । उसके समर्थक झुक-झुक कर नमस्ते कर रहे थे । मतदाता के लिए मानो लाल कालीन जमीन पर बिछा दिए गए हों।
” आइए हजूर ! हम आपके स्वागत के लिए तैयार खड़े हैं ! “-कुछ इन्हीं भावनाओं के साथ मतदाता का स्वागत चल रहा था । जब से चुनाव घोषित हुए और जब तक मतदाता ने मतदान नहीं कर दिया ,उस की पाँचों उंगलियांँ घी में थीं। ऐसा लगता था, जैसे दूल्हा बना हुआ चारों तरफ घूम रहा हो। घोड़े पर शेरवानी पहने हुए ,मुकुट धारण किए हुए राजसी अंदाज में मतदाता था और उसके घोड़े की डोर पकड़े हुए उम्मीदवार सिर झुकाए हुए चल रहा था । कहाँ यह दृश्य जिसमें राजसी खातिरदारी थी और कहाँ अब अगले दिन जब मतदान समाप्त हो चुका, मतदाता को कोई पूछने वाला नहीं है। उसकी समझ में नहीं आ रहा कि कल तक जो हो रहा था वह स्वप्न है अथवा आज जो उपेक्षा प्राप्त हो गई है वह स्वप्न है ?
मतदाता पिछले एक महीने के अपने वैभव का स्मरण करता हुआ सोच-विचार में डूबा रहता है । तभी उसको आत्मज्ञान प्राप्त होता है और कोई उसके कान में आकर धीरे से कहता है कि पाँच साल में एक बार तुम्हें स्वर्ग का सुख मिलता है । अब भोग चुके हो। बहुत भोग चुके । अब अपने-अपने नर्क में वापस जाओ । अब तुम्हें पाँच साल तक कोई पूछने वाला नहीं है ! मतदाता बेचारा मरता क्या न करता ! सिर झुका कर बैठ जाता है और अपने हाथ से सिर पकड़ लेता है।
—————————————————-
लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 999761 5451

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