बेचारा प्रताड़ित पुरुष
आज इक्कीसवीं शती में भी एक बड़ी जनसंख्या (जिसमें बहुसंख्य पुरुषों के साथ महिलाएँ भी सम्मिलित हैं) बलात्कार की शिकार स्त्री को ही दोषी मानते हैं। जहाँ भी देखिए स्त्रियों को क्या पहनना चाहिए, क्या व कितना बोलना चाहिए, किससे बात करनी चाहिए आदि-आदि सब दूसरे ही तय करते हैं। ये एक ऐसा समाज है जहाँ स्त्री कभी समझदार मानी ही नहीं जाती। सदा ही उसकी रक्षा या यूँ कहें नियंत्रित करने के लिए किसी न किसी पुरुष की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा नहीं कि सभी स्त्रियाँ सताई हुई ही हैं। कुछ मामलों में पुरुष भी सताए जाते हैं। दहेज, बलात्कार और घरेलू हिंसा के झूठे मामलों में बढ़ोतरी हुई है, यह भी सच है| इस दिशा में भी जागरूकता फैलाना आवश्यक है किन्तु जिस प्रकार सभी पुरुष बलात्कारी व अपराधी नहीं होते, अपनी पसंद से वस्त्र पहनने वाली सभी महिलाएँ भी चरित्रहीन नहीं होती| दर असल केवल वस्त्र आदि देखकर किसी को भी चरित्र प्रमाण-पत्र देने का किसी का अधिकार ही क्यों होना चाहिए| जब एक सभा में किसी एक सताए गए पुरुष का हवाला देते हुए एक मित्र ने स्त्रियों की ‘बेशर्मी’ पर भाषण दे डाला जिसके बारे में उन्होने किसी से सुना भर था और इसी के आधार पर वे स्त्रियों से होने वाली छेड़छाड़ और बलात्कार तक को उनके कपड़ों से जोड़ने लगे| घूँघट, पर्दा आदि को नारी के अच्छे चरित्र का मानदंड बताने लगे, तब प्रतिक्रिया स्वरूप इस कविता का जन्म हुआ |
सताया गया जो एक पुरुष कहीं
घटना भी ठीक से याद नहीं
आठ-आठ आँसू रोये जनाब
वाह ! आपका भी जवाब नहीं !
नारी में होनी चाहिए शर्म,
सिमटी हो वो खुद में ही
देह प्रदर्शन की क्या हो सीमा,
तय भी ये करेंगे आप ही ।
पुरुष की देह तो है ही दर्शनीय
उसे छुपा कर रखने का क्या उद्देश्य ?
भले ही हो निर्वस्त्र वो सरे आम
नारियाँ रखें अपने काम से काम।
बेचारा पुरुष भोला भाला अबोध
नारी का अंग देख खो देता होश
गर्व से कहे , भीतर का पशु जागा है
वाह जनाब ! आपका विवेक कहाँ भागा है?
अंतर्वस्त्र पहन मोहल्ले में घूमता
पुरुष देवता है
क्योंकि नारी का
विवेक अभी ज़िंदा है
पुरुष की खुली देह
उसे बलात्कार को नही उकसाती
क्योंकि वो सही व गलत के
बीच का फर्क है पहचानती
पाँच वर्ष की बच्ची भी इन्हें उकसा जाती है
कभी कभी तो रिश्तों की मर्यादा
भी तार तार हो जाती है
हे बेचारे प्रताड़ित पुरुष !
मुझे तुम पर बड़ी दया आती है।
अपनी पत्नी
सदा पर्दे में ही सुहाती है
पड़ोसन का अंग
नज़र सौ परदों में भेद जाती है
मुस्कुराहट नारी की
इन्हें आमंत्रण नज़र आती है
हे बेचारे प्रताड़ित पुरुष !
आप पर सचमुच बड़ी दया आती है।
नग्न पौरुष का प्रदर्शन आपका गौरव है
स्त्री के कंधे से दुपट्टा खिसकना
निर्जज्जता का द्योतक है
शर्म तो यदि सचमुच ही औरत का गहना है
अर्थात औरत ने इसे सौन्दर्यवर्धन को पहना है
लो बढ़े हुए सौंदर्य ने फिर पुरुष का चैन छीना है
हो जाता है बेचैन, पाने को उस पर अधिकार
अरे नारी जाति ! तुझ पर बार बार धिक्कार।
बेचारे पुरुष का ईमान तुझे देख सदा ही डोला है
साड़ी हो, बुर्का हो, फ्रॉक हो या फिर लंगोट ही हो
आ जाता तेरे देह प्रदर्शन के झाँसे में,
बेचारा कितना भोला है।
क्या हुआ जो तूने माँ बन कर जन्म दिया
क्या हुआ जो स्तन से अमृत पिला जीवन दिया
तेरा अस्तित्व तो इसके आगे
बस एक खिलौना है
माँ के दूध से पोषित तन
स्त्री का अंग देख डोला है ।
ये पुरुष इस धरती की सबसे बड़ी विभूति है
महिला ने दिखाकर खुला अंग इसकी लाज लूटी है
हे प्रताड़ित पुरुष ! मुझे सचमुच आपसे
बहुत बहुत बहुत ज़्यादा सहानुभूति है।
दया के पात्र हैं आप
केवल तन मात्र हैं आप
विवेक, प्रेम, समझ, शालीनता
का नहीं जिसमें वास ।
स्त्री के उकसाए हुए
आपके महान “पौरुष”को
बारंबार प्रणाम!
डॉ मंजु सिंह गुप्ता