बेकफ़न लाशें
मौत नदियों में तैरती रही,
लोग शब्दों के जाल में खोते रहे।
क्या ज़िंदगी इतनी सस्ती हो गई है ?,
अपने आप से हम ये पुछते रहे।
कई घर लील लिए इस महामारी ने,
हम अपनों को एक आंकड़ा बनते देखते रहे।
इंसान की इंसानियत दिखी थी इस कोहराम में,
लोग हवा के नाम पे भी दूसरों को ठगते रहे।
कई झूठ के पुल बांधे गए थे सरकार के द्वारा,
आँख मूंदे हम उन पुलों पे चलते रहे।
बेकफ़न पड़ीं थी दुनिया के सामने हमारे समाज की लाश,
हम जवाबदेही की तलाश में दर-दर भटकते रहे।
– सिद्धांत शर्मा