—–बेकार “”मैं”””की खातिर__
इस जिस्म की खातिर
मैं रोजाना सजता संवारता रहा
खुद को,
रोजाना न जाने कितने लिबास
मैं इस के लिए
बदलता रहा
सच तो यही था कि
इक सफ़ेद सी चादर से
ढंकना था
मुझ को यह जिस्म,
न जाने कितने दागो से
रोजाना
इसको भरता ही रहा
जाना था शमशान तक
चार कन्धो के सहारे
बेकार ही अपनी “मैं” की खातिर
सब से झगड़ता ही रहा
दफन हो जाना है
आवाज भी नहीं होगी
दुनिया चार दिन करेगी बातें
फिर नहीं देखना
ज़माना है !!
अजीत कुमार तलवार
मेरठ