बेईनसाफी प्रकृति से (समसामयिक )
कविता
बारिश भी
आज हो रही
बेईज्ज़त
खुश होने के
बजाय
कोसते हैं
बारिश को
इन्सान
भर जाता है
पानी
शहर, मोहल्ले,
गली में
करता है त्राहि त्राहि
इन्सान
बांध देते है
नदी झील के
रास्तों को
अतिक्रमण कर
फैलाते जा रहे
कांक्रीट के जाल
धरती रहती है
प्यासी
कहर बन जाता है
पानी
चेतो अभी भी
स्वार्थी , मतलबी
इन्सान
जिन दिन
हो जाऐगी
प्रकृति बेरहम
तरसोगा
एक एक बूँद के लिए
इन्सान
स्वलिखित लेखक
संतोष श्रीवास्तव भोपाल