बूढ़ा बागवान
बूढा बागवान
फूटी किस्मत आज पिता की मांगे रोटी मान की।
टूटे दर्पण सी हालत है बूढे बागवान की।
उंगली पकड सिखाया चलना, मन ही मन मे फूला था।
इतना प्यार किया बेटों को, खुद अपनी सुध भूला था।
जिसने जीवन भर चिंता की , बच्चों के अरमान की।
टूटे दर्पण सी हालत है बूढे बागवान की।
जिसने हर दुख स्वयं उठाकर, अपनो को सुख दे डाला।
गृह मे कष्ट किसी का भी हो, पल मे उसने हर डाला।
वृद्धाश्रम मे रात न कटती , बच्चों के भगवान की।
टूटे दर्पण सी हालत है , बूढे बागवान की।
तन मन धन सब अर्पण करके, रंजन बाग लगाया था।
त्याग तपस्या का पानी दे , श्रम से जिसे निराया था।
पतझड मे जल गयी होलिका, रिश्तो के अरमान की।
टूटे दर्पण सी हालत है बूढे बागवान की।
बचपन मे तुझे चोट लगी थी हालत तेरी नाजुक थी।
माँ का रोकर हाल बुरा था , तू ही हमारी दौलत थी।
नंगे पैर लादकर भागा, चिंता तेरे जान की।
टूटे दर्पण सी हालत है, बूढे बागवान की।
तू है मेरे दिल का टुकडा, अर्थी मे तो आयेगा।
या फिर घर बैठे फूलों को, डाक से मंगवायेगा।
कौन अग्नि देगा फिर मुझको , चिंता है श्मशान की।
टूटे दर्पण सी हालत है , बूढ़े बागवान की।
अंतिम अभिलाषा है मेरी, अर्थी में तू आ जाना।
मैंने पिता का फर्ज निभाया, सुत का फर्ज निभा जाना।
तू ही देना अग्नि चिता को ,
फिर मर्जी भगवान की।
टूटे दर्पण सी हालत है,
बूढ़े बागवान की।
आश्रम से निकली है अर्थी,
इंतजार बेटे का था।
ढूँढ रही पथराई आँखे,
सुत का कोई पता न था।
जली चिता रो पडी आत्मा ,
घर के बागवान की
टूटे दर्पण सी हालत है,
बूढ़े बागवान की।
स्वरचित:
सर्वाधिकार सुरक्षित
राजेश तिवारी”रंजन”
बाँदा उत्तर प्रदेश