***” बुढ़ापा “*
।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।
“बुढ़ापा”
हर व्यक्ति बुढ़ापा के चंगुल में आ ही जाता है ये प्रकृति चक्र है फिर भी मन में डर सा बने रहता है ना जानें क्या होगा …? बुढ़ापा कैसे व्यतीत होगा ….असहनीय दर्द …अकेलापन ..
तन्हाइयाँ ….निसहाय काटने को दौड़ती है न जाने कैसी हालात होगी ..कौन सहारा देगा बस यही सोचते हुए कर्म बंधन की मुक्ति का मार्ग ढूढ़ते इतंजार की घड़ियां गिनते हुए अतीत के पन्नों को दोहराते हुए अपने ही कर्मों को दोषी ठहराते रहते हैं।
रामप्रसाद जी नौकरी करके सेवा निवृत्त हो गए उनके सात बेटे एक बेटी सभी अच्छे पदों पर कार्यरत शहर में अलग अलग जगहों में रहते हैं सिर्फ छोटा बेटा बहू गाँव में उनके साथ रहकर उनकी सेवा करते हैं बाकी कभी कभी कुछ कार्यक्रम में शादी व्याह में आकर बाबूजी से मिल जाया करते हैं ।
रामप्रसाद की पत्नी रोहिणी भी उम्र के साथ बी.पी. ,शुगर की मरीज होने के कारण उन्हें दो बार अटैक आ चुका अब शरीर के एक हिस्से में लकवा मार दिया है तो चलने फिरने काम करने में असमर्थ है छोटे बेटा -बहू ,बच्चे रामप्रसाद जी स्वयं जिम्मेदारियों को निभाते है सारी सुख सुविधाएं उपलब्ध कराने के बाद खेती बाड़ी सम्हालना वर्तमान स्थिति का निर्वहन करते हुए व्यतीत करते हैं ।
बुढ़ापे में ऐसा लगता है कि बच्चे साथ में रहें सहारा दे, मदद करते रहे और खुश रखें यही आस लगाए रखते हैं ।रामप्रसाद जी व पत्नी रोहिणी खुद अपना कार्य कर लेते थे लेकिन अब बुढ़ापे के साथ शरीर कमजोर लाचार मजबूर हो चला है तो कभी कभी सारे बच्चों से कहती है -“कि सात बेटों को पाल पोष कर बड़ा किया है लेकिन आज एक माँ को सात बेटे नहीं पाल सकते हैं “बोझ बन गई हूँ” सहारा देने
सेवा करने के लिए वक्त ही नही है अपने घर में रखने के लिए भी इधर उधर का बहाना बना लिया करते हैं अपने उम्र में बहुत सारे कामों का बोझ लेकर सारे परिवारों की शादी व्याह अकेले ही निपटा लिया करती थी लेकिन आज अपाहिज की तरह लाचार ,मजबूर हो गई हूँ दूसरो पर आश्रित रहकर इन आँखों से टकटकी लगाए निसहाय बुढ़ापे के असहनीय पीड़ा को झेल रही हूँ “…….! ! !
” जो आज है वो कल भी नही रहेगा और जो अतीत में गुजर चुका है वो भी समय के साथ साथ बदल जायेगा समय बड़ी तेजी से निकलता जा रहा है सभी समय को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ने के चक्कर में सब पीछे की परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं ……! ! !
नये युग की आगाज़ से नई दिशा की ओर आकर्षित हो रहे हैं ।
* बुढ़ापा एक असहनीय दर्द पीड़ा है लेकिन मल्हम के रूप में जो सामने रहकर जैसा उचित जान पड़े सेवा करता है तो उसे सहर्ष स्वीकार करते हुए ईश्वर आराधना में लीन हो जाना ही कर्म बंधन से मुक्ति का मार्ग ही असली जीवन है ……! ! !
स्वरचित मौलिक रचना ??
*** शशिकला व्यास ***
#* भोपाल मध्यप्रदेश #*