बुलाता है ये घर आंगन चले आओ चले आओ।
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बुलाता है ये घर आंगन चले आओ चले आओ।
तुम्हारे बिन है सूनापन चले आओ चले आओ।
अगर तुम चाहते हो देखना मेरी वफ़ाओं।
तो बनकर प्यार का दर्पन चले आओ चले आओ।
तुम्हारे हिज्र का शायद असर मुझ पर हुआ है ये।
कि बढ़ती जाती है उलझन चले आओ चले आओ।
जिन्हें बे-नूर कर डाला तुम्हारी बेवफाई ने।
दिये करने को वो रौशन चले आओ चले आओ।
मैं तुम पर जान देता हूँ तुम्हारा हूँ मैं शैदाई।
तुम्हारा मैं नहीं दुश्मन चले आओ चले आओ।
‘क़मर’ उन से कहो अब मैंने आँखें बन्द कर ली हैं।
हटा कर आज तो चिलमन चले आओ चले आओ।
जावेद क़मर फ़िरोज़ाबादी