बुलाई नहीं गई
तुझ से लाई नहीं गई, मुझ से बुलाई नहीं गई
रूह की फरमाइश थी यही बताई नहीं गई
मसला ये नहीं दस्तक दिए हमने कितनी बार
मसला तो ये हुआ दस्तक तुझसे सुनी नहीं गई
वो … रोकती रही थी मैं खुद को बारम बार
अपनी ही आवाज़ मुझ से बस सुनी नहीं गई
मिट्टी से मिट्टी की चाह तो न थी रूह की प्यास थी
नजदीकियों और दूरियों में हमसे सुलझाई नहीं गई
~ सिद्धार्थ