बुलंदी पे क्या उड़ने लगे
ज़रा सा बुलंदी पे क्या उड़ने लगे
वो खुद को आसमा समझने लगे
जो सोचते थे कि हमी से है सजर
वो पत्ते भी शाखों से झड़ने लगे
नए दौर की तरबियत अच्छी नहीं
अब घर घर में बच्चे बिगड़ने लगे
सिर्फ इमारतें ही रह जाएंगी शहर में
गर इसी तरह हम अक्सर लड़ने लगे
फूलों के पौदे पनप ही नहीं रहे “अर्श”
कांटों के दरख़्त तो अब फलने लगे