बुरा न मानो होली है
लघु कथा :
बुरा न मानो होली है
– आनन्द प्रकाश आर्टिस्ट
‘‘परीक्षाएं सिर पर हैं, अगर किसी ने होली के बहाने हुड़दंग किया तो उसका नाम नोट करके परीक्षा में फेल कर दिया जाएगा।’’- हालांकि यह सम्भव नहीं था, किन्तु फिर भी कल होली से दो दिन पूर्व विद्यालय में छात्राओं का जो हुड़दंग देखा था, उसे ध्यान में रखते हुए आज प्रातःकालीन सभा में प्राचार्य को सख्त लहज़े में यह कहना पड़ा था। साथ ही उन्होंने अपने सामने बैठी हज़ारों छात्राओं को बड़े प्यार से समझाया था कि ‘‘किसी त्योहार पर खुशियां मनाना बुरा नहीं है, किन्तु विद्यालय विद्या का मंदिर होता है, इसमें मंदिर के जैसा अनुशासन ही हमें रखना चाहिए।’’ अपनी बात समाप्त करते-करते पूछा था उन्होंने छात्राओं से -‘‘बोलो आज रहोगी न अनुशासन में?’’
‘‘जी सर!’’-उन्हें ज़वाब मिला था। छात्राओं की तरफ से ऐसा हुआ भी था। आज ‘कल’ की तरह से उन्होंने हुड़दंग नहीं मचाया था।
‘‘यह क्या!’’- प्राचार्य हैरान था थोड़ी देर बाद यह देख कर कि कक्षाओं में जहां पढ़ाई होनी चाहिए थी, वहां महिला स्टाफ अर्थात अध्यापिकाएं छात्राओं से अपने हाथों पर मेहन्दी रचवा रहा था। जो भी शिक्षिका किसी क्लासरूम से बाहर आ रही थी, वो अपने दोनों हाथ आगे की तरफ ऐसे फैला कर मेंहदी सुखाती आ रही थी, जैसे कि किसी फिल्म की अंधी भिखारिन साफ-सुथरे कपड़ों में यह गाना गाती आ रही हो कि ‘‘दे दाता के नाम तुझको अल्ला रखे राम।’’ महिला स्टाफरूम से आ रहा शोर भी किसी रेलवे स्टेशन के प्लेटफाॅर्म पर होने वाले शोर से कम नहीं था। ज्यादातर अध्यापकिाएं अपनी कक्षाएं छोड़ कर स्टाफरूम में ही होली खेल रही थी। उसने टोका था, तो सभी की तरफ से एक साथ ज़वाब मिला था-‘‘सर बुरा न मानो होली है।’’ अपनी अध्यपकिाओं का यह ज़वाब स्टाफरूम के सामने से गुजरती कुछ छात्राओं ने भी सुना था।
बच्चों अर्थात छात्राओं के साथ-साथ वह खुद भी सोच रहा था कि क्या अनुशासन के सारे नियम बच्चों पर ही लागू होते हैं?
‘‘मैडम यह सब क्या है?’’ – क्लारूम में छात्राओं से अपने हाथों पर मेहन्दी रचवा कर निकल रही एक अध्यापिका को टोका था, उसने।
‘‘सर बुरा न मानो होली है।’’- कहा था अध्यापिका ने और बढ़ गई थी गर्दन झटका कर हवा-हवाई होती हुई आगे। मैडम का इतना कहना था कि छात्राओं ने भी अब तक छुपा कर रखे रंग-गुलाल के पैकेट बिना किसी भय के निकाल लिए थे। पुरुष स्टाफ ने उन्हें रोकना चाहा, तो अनुशासन के नाम पर उन्होंने रंग-गुलाल के पैकेट अपने गुरुजनों को थमा दिए थे। उसे बड़ा अच्छा लगा कि छात्राओं ने उसकी बात मानते हुए अनुशासन का परिचय दिया था, किन्तु आश्चर्य हुआ कि जो स्टाफ सदस्य छात्राओं से रंग-गुलाल के पैकेट छीन कर लाए थे, वही थोड़ी देर बाद उसके और उसके जैसे अन्य स्टाफ सदस्यों अपने रंग में रंगने आ पहुँचे थे। किसी को रंगों से परहेज़ हो तो हो इन्हें क्या? और अगर टाको तो बस एक ही बहाना कि जब महिला स्टाफ खेल रहा है, तो ये क्यों न खेलें?
सुबह प्राचार्य की बात का समर्थन करने वाले कुछ स्टाफ सदस्य एक-दूसरे के चेहरे पर रंग लगा रहे थे, अपने-अपने मोबाईल फोन से विडियो फ़िल्म भी बना रहे थे, तो ऐसे में छात्राओं को कौन रोकता और रोकता भी तो कैसे।
होली के नाम पर उससे व उसके जैसे अन्य शिक्षकों से अनुशासनहीनता सहन नहीं हो रही थी, किन्तु किया भी क्या जा सकता था, जिसे भी टोको, वही कह रहा था कि ‘‘बुरा न मानो होली है।’’
स्कूल की छुट्टी तक पूरे का पूरा विद्यालय प्रांगण रंग-बिरंगा हो गया था। छात्राओं की सुरक्षा में गेट पर खड़ी महिला पुलिस भी हैरान थी यह देख कर कि हाथों पर मेंहदी लगाए बाहर निकल रही कुछ अध्यापिकाओं के चेहारों पर भी रंग-गुलाल लगा हुआ था। पर सबकी सब पुलिस की प्रश्नसूचक निग़ाहों का ज़वाब अपने ही अंदाज़ में यह कह कर देते जा रही थी कि ‘‘बुरा न मानो होली है।’’
‘‘अगर ऐसा है, तो हमारे हाथ में यह डण्डा क्यों?’’- सवाल था, ड्यूटी पर तैनात महिला पुलिस कर्मियों की नज़र में। पर इसका ज़वाब किसी के पास नहीं था। अगर किसी के पास कुछ था, तो बस यही एक वाक्य था कि ‘‘बुरा न मानो होली है।’’
– आनन्द प्रकाश आर्टिस्ट,
अध्यक्ष, आनन्द कला मंच एवं शोध संस्थान,
सर्वेश सदन, आनन्द मार्ग, कोंट रोड़ भिवानी-127021(हरियाणा)