बुनकर…
कैसे बुनते हो तुम बुनकर,
सूतो का ये ताना बाना,
बन जाता जो आखिर में,
धागों का एक पूरा ‘जामा’…
कितने ही तुम सूत मिलाते,
विविध रंग के जोड़ मिलाते,
कितने धागों पर गांठ लगाते,
गांठ लगा आगे बढ़ जाते…
मैं तेरे कपड़े में ढूंढ के हारा,
सूत दिखा न गांठ का मारा,
मैने भी तो बुनता हूँ रिश्ते,
जो खुशियों और प्रेम मे पलते…
कितने ही धागे रोज मिलाता,
सब जतनो से उन्हें सजाता,
पर ऐसा ‘जामा’ बन न पाता,
जिसमे कोई ‘गांठ’ न पाता…
मेरे बुनने मे आखिर क्यूँ,
हर गांठ दिखाई देती है?
कितना कर लूँ जतन सही,
पर साफ दिखाई देती है…
मै बुन न पाता धागों को??
जैसे तुम बुनते परिधानो को..
बिलकुल,बेदाग,बेगांठ,अजर!!!
कैसे बुनते हो तुम…बुनकर???
©विवेक ‘वारिद’*