Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
2 Oct 2021 · 12 min read

बुद्धिजीवियों के आईने में गाँधी-जिन्ना सम्बन्ध

इक-दूजे के प्राण थे, इक दूजे के यार
दोनों राष्ट्रपिता हुए, कुछ समझे गद्दार

ये दुर्लभ दृश्य भारत छोडो आंदोलन के बाद का है। सन 1944 ई. से 1947 ई. तक गाँधी जी अलग-अलग मौकों पर गाँधी जी जिन्ना को मनाने की और पाकिस्तान न बनाने की असफल कोशिश करते रहे। लेकिन 1920 ई. में पूरी तरह से कांग्रेस छोड़ चुके जिन्ना अगले दो दशक में पूरी तरह से मुस्लिम लीग के रंग में रंग चुके थे। उनके इरादे अटल थे। नेहरू तो कभी जिन्ना की खुशामद करने जिन्ना के पीछे नहीं दौड़े, मगर गाँधी जी निरन्तर प्रयास करते रहे।

गाँधी दर्शन है यही, छोड़िये जात-पात
अहिंसा पथ पर सब चलो, कहो प्रेम की बात

यह निर्विवादित सत्य है कि मोहनदास करमचन्द गांधी (जन्म: 2 अक्टूबर 1869—निधन: 30 जनवरी 1948) को भारत की आज़ादी के योगदान के लिए भारतीय जनता जनार्दन द्वारा “राष्ट्रपिता” की संज्ञा से अलंकृत किया गया। जिन्हें महात्मा गांधी के नाम से भी जाना जाता है। गाँधी जी की इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी, इसी अहिंसक सिद्धान्त को विश्व में शांति-भाईचारे के रूप में समय-समय पर बुद्धिजीवियों द्वारा किताबों, आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता रहा है। इसलिए गाँधी को दुनिया में आम जनता “महात्मा” के नाम से जानती है। यह संस्कृत भाषा से उपजा शब्द है जिसे संतों और ऋषिमुनियों के लिए सम्मान के रूप में कहा जाता है। यहीं महात्मा अथवा महान आत्मा भी उसी कड़ी में एक सम्मान सूचक शब्द के रूप में देखा जाता है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया था। जबकि एक अन्य मत के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द ने 1915 मे महात्मा की उपाधि दी थी, तीसरा मत ये है कि गुरु रविंद्रनाथ टैगोर ने महात्मा की उपाधि प्रदान की थी। ख़ैर बात कुछ भी हो। जिन स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गाँधी को महात्मा की उपाधि दी। उसी सन्त की हत्या जब अब्दुल रशीद नाम के एक धार्मिक उन्मांदी द्वारा कि गई तो गाँधी जी का शर्मनाक बयान सामने आया था।

यहाँ स्वामी श्रद्धानन्द (1856—1926) जी पर कुछ कहना चाहूंगा। वर्ष 1917 ई. में मुंशीराम विज ने जब सन्यास धारण किया तो वह स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए। स्वामी जी ने जब कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं को “मुस्लिम तुष्टीकरण की घातक नीति” अपनाते देखा तो उन्हें लगा कि यह नीति आगे चलकर राष्ट्र के लिए विघटनकारी सिद्ध होगी। इसके बाद कांग्रेस से उनका मोहभंग हो गया। दूसरी ओर कट्टरपंथी मुस्लिम तथा ईसाई संस्थाएँ हिन्दुओं का मतान्तरण कराने में लगे हुए थे तो आर्यसमाजी श्रद्धानन्द जी ने असंख्य पूर्व हिन्दुओं को महाऋषि दयानन्द जी द्वारा बताये गए उपायों से पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित कराया। इसके ज़रिए गैर-हिन्दुओं को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये शुद्धि नामक आन्दोलन चलाया। जो बहुत लोकप्रिय हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वेछा एवं सहमति के पश्चात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मलकान राजपूतों को शुद्धि कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दू धर्म में सफल वापसी कराई।
यह सब कार्य मुस्लिमों को काफ़ी नागवार गुज़रे। अतः 23 दिसम्बर 1926 ई. को नया बाजार स्थित स्वामी जी के निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी ने धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश करके गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी। बाद में उस दुष्ट हथियारे को फांसी की सजा हुई।

किन्तु दुःखद स्थिति तब घटित हुई। जब हत्या के दो दिवस उपरांत 25 दिसम्बर, 1926 ई. को गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में जारी “शोक प्रस्ताव” में जो कुछ कहा वह हिन्दू समाज को अत्यन्त स्तब्ध करने वाला था। महात्मा गांधी ने शोक प्रस्ताव कहा, “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे यहाँ भी दोहराता हूँ। मैं उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक-दूसरे समुदाय के विरुद्ध घृणा की भावना को जन्म दिया। अत: यह अवसर दुख प्रकट करने अथवा आँसू बहाने का नहीं है।“

इसी व्यक्तव्य में गांधी ने आगे कहा,”… मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। एक वकील होने के नाते मैं अब्दुल रशीद की ओर से उसकी पैरवी करने की इच्छा रखता हूँ। समाज सुधारकों को तो अपने किये की ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है। श्रद्धानन्द की हत्या में कुछ भी ग़लत नहीं है। ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया। स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि, उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली समूहों के विभाजन को मजबूत कर सकेगा।“ (यंग इण्डिया, 1926)।

ये वही गाँधी हैं जिनके लिए स्वामी जी ने गुरुकुल के छात्रों से 1500 रुपए एकत्रित कर के गांधी जी को तब भेजे थे जब उनकी पहचान बननी अभी आरम्भ ही हुई थी, तब वह अफ्रीका में संघर्ष कर रहे थे। गांधी जी जब अफ्रीका से भारत आये तो वे गुरुकुल पहुंचे तब गाँधी जी स्वामी जी और उनके राष्ट्रभक्त छात्रों के समक्ष नतमस्तक हो उठे। तब स्वामी श्रद्धानन्द जी ने ही सबसे पहले उन्हे ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया और बहुत पहले यह भविष्यवाणी कर दी थी कि वे आगे चलकर बहुत महान बनेंगे। बाद में इसका श्रेय लेने के लिए अनेकों व्यक्तियों का नाम जोड़ा गया। बिडम्बना देखिये उन्हीं स्वामी जी की मृत्यु पर अफ़सोस व्यक्त करने की जगह गाँधी ने शर्मनाक व्यक्तव्य देकर स्वामी जी का ऋण चुकाया। ठीक तेईस वर्ष पश्चात् गाँधी का अन्त इसी तुष्टिकरण के चलते हुआ। गोड़से भी गाँधी के शोक प्रस्ताव से हैरान था। ख़ैर, एक अन्य मतानुसार गांधीजी को ‘बापू’ सम्बोधित करने वाले प्रथम व्यक्ति उनके साबरमती आश्रम के शिष्य थे। नेताजी सुभाष ने 6 जुलाई 1944 ई. को रंगून रेडियो से गांधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें “राष्ट्रपिता” कहकर सम्बोधित किया था और “आज़ाद हिन्द फौज” के सिपाहियों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं। गांधी जयन्ती को पूरे विश्व में आज ‘अन्तरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

सुविख्यात पत्रकार व बुद्धिजीवि स्व. कुलदीप नैयर (1923—2018) द्वारा रची गई पुस्तक Of Leaders and Icons, from Jinnah to Modi (नेताओं और प्रतीकों में जिन्ना से मोदी तक ) इस किताब का फॉरवर्ड महान हिन्दी विद्वान श्री मार्क तुली जी ने लिखा है। इस पुस्तक के आधार पर, “विभाजन का फार्मूला तैयार करने के उपरान्त, ब्रिटिशराज के अंतिम वायसराय लॉर्ड लुइस माउंटबेटन ने महात्मा गांधी से एक बैठक के लिए अनुरोध किया था। जब मैं उनसे मिला तो माउंटबेटन ने मुझे बताया कि जब महात्मा कमरे में आए तो उन्हें लगा कि एक प्रभामंडल है। ‘विभाजन’ शब्द सुनते ही गांधी बैठक से बाहर चले गए। माउंटबेटन को तब जिन्ना कहा जाता था। माउंटबेटन ने कहा, ‘आपका पाकिस्तान एक वास्तविकता है। उन्होंने एक बार फिर दोनों देशों के बीच किसी तरह की कड़ी के लिए प्रयास किया, चाहे वह कितना भी कमजोर क्यों न हो। जिन्ना ने एक बार फिर इस सुझाव को खारिज कर दिया। बाकी इतिहास है।” यहाँ कुलदीप नैय्यर जी के विषय में भी बता दूँ कि भारत के द्वितीय प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री के साथ भी नैय्यर जी रहे थे तो उन्होंने इस पर कोई किताब क्यों न लिखी? क्या तन से भारतीय कुलदीप नैय्यर मन से एक पाकिस्तानी (देश भक्त) थे? यदि कहा जाये तो नैय्यर जी अमेरिकन सी.आई.ए. के साथ थे? इसका जवाब शायद “हाँ” होगा?

ख़ैर, पाकिस्तान बनने के बावज़ूद जिन्ना ने कभी भी भारत के साथ अपने संबंधों को तोड़ने की कोशिश नहीं की। वह विभाजन के बाद भी नियमित रूप से बतौर मेहमान कुछ समय बिताने के लिए बीच-बीच में भारत आते रहना चाहते थे। विभाजन के उपरांत जब दंगे-फसाद का मामला कुछ शान्त हुआ तो एक पत्र के माध्यम से भारतीय प्रधानमंत्री के नाते नेहरू ने उन्हें लिखा और जिन्ना से जानना चाहा कि आपकी दो स्वास्थ्यप्रद संपत्तियों का क्या किया जाना चाहिए? जो दिल्ली के औरंगजेब रोड में और बॉम्बे (वर्तमान मुम्बई) के मालाबार हिल में मौज़ूद हैं। तो जिन्ना ने उत्तर में लिखा था कि, मैंने यह तय किया कि हर साल कुछ समय के लिए भारत में आकर रहूँ लेकिन स्वास्थ्य इसकी अनुमति देगा या नहीं, खुदा जाने!” ख़ैर नियम क़ायदे से चलने वाले देश भारत में ‘शत्रु’ की संपत्ति को भी जब्त करने का सवाल ही नहीं उठता था।

एक और उदाहरण है जो कुलदीप नैय्यर जी को जिन्ना के लंबे समय तक निजी सचिव, खुर्शीद अहमद द्वारा मिला। यह बात वर्ष 1948 ई. के आसपास की है। खुर्शीद कराची में गवर्नर जनरल के घर की डाइनिंग टेबल पर बैठे थे। जिन्ना की बहन फातिमा भी मौजूद थी। पाकिस्तानी नौसेना के एक युवा एडीसी, जिनके अपने परिवार के सदस्य दंगों के दौरान मारे गए थे, वो जिन्ना से भी सवाल करने की हिम्मत रखते थे। उन्होंने फ़रमाया, “क़ायद-ए-आज़म, क्या पाकिस्तान का जन्म एक अच्छी बात थी?’ बूढ़ा नहीं था कम से कम एक मिनट के लिए बोलें, जो खुर्शीद ने कहा, वास्तव में एक झटके की तरह लगा। फिर उसने कहा, “जवान, मुझे नहीं पता। ये वक़्त तय करेगा?”

एक अन्य बुद्धिजीवि सुधीन्द्र कुलकर्णी अपने आलेख में लिखते हैं कि, “पाकिस्तान के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाला पहला हिंदू कौन था?” यह कुलकर्णी जी ने लाहौर के एक प्रमुख व्यवसायी से पूछा था, जब वह कुछ साल पहले पाकिस्तान गये थे। वह एक गर्वित पाकिस्तानी था और 1947 में जन्म के बाद से हमारे दोनों देशों के बीच शांति और दोस्ती के लिए भावुक था। लेकिन उन्हें इसका जवाब नहीं पता था, और जब कुलकर्णी ने ये कहा, ” क्या यह महात्मा गांधी थे?” तो सर हिलाकर उस व्यवसायी ने अपनी मौन स्वीकृति दी।

सुधीन्द्र जी आगे लिखते हैं, लगभग 200 वर्षों के अपने औपनिवेशिक शासन को समाप्त करते हुए तथा प्राचीन भूमि को दो स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्रों में विभाजित करते हुए, अंग्रेजों ने मुश्किल से छह महीने पहले 1947 को ही भारत छोड़ दिया था। विभाजन का कारण ज़ाहिर तौर पर यही था कि “मुसलमान और हिंदू दो अलग-अलग राष्ट्र हैं”…, और जिस तरह से यह हुआ, वह बेहद शर्मनाक है। इस विभाजन ने एक भयानक सांप्रदायिक रक्तपात को जन्म दिया और मानव इतिहास में सबसे बड़ा सीमा पार प्रवास पैदा किया। उस समय दिल्ली में पश्चिमी पाकिस्तान के हिंदू-सिख शरणार्थियों की भीड़ थी, जैसे लाहौर, कराची और अन्य जगहों पर मुस्लिम शरणार्थी आ रहे थे। भारत की राजधानी में माहौल न केवल पाकिस्तान विरोधी बल्कि मुस्लिम विरोधी गुस्से का भी आरोप लगाया गया।

इतिहास से छेड़छाड़ करने वाले भारत के उन प्रगतिशील शीर्ष बुद्धिजीवियों में से कुछ, जो प्रायः भारत विरोधी मंचों की शोभा बनते हैं, उनमें श्री कुलदीप नैयर, दिलीप पडगांवकर, गौतम नवलखा, राजिंदर सच्चर आदि महत्वपूर्ण—उल्लेखनीय नाम हैं। सबसे अधिक दुर्भाग्यजनक स्थिति तो तब पैदा होती है जब हमारी केंद्रीय इकाई भी इन काग़ज़वादी बयान बहादुरों को हलके में लेकर चल रही है। जिन्हें देशभक्त छद्म उदारवादी अथवा प्रगतिशील कहते हैं। अंग्रेज़ों के वक़्त का भारत हो या उनके बाद का परिस्थितियाँ कमोवेश वहीँ हैं। जहाँ पहले विदेशी भारत भारत के मामलों में सीधे हस्तक्षेप करते थे वहीँ अब बुद्धिजीवियों के माध्यम से अपने प्रोपगेंडा का जीवित रखे हुए हैं। इस कवच को तोडना बेहद मुश्किल है। यह प्याज़ की झिल्लियों को एक के बाद एक उघाड़ने का मामला है।

आमतौर पर देश में प्रगतिशीलता, न्याय, धर्मनिरपेक्षता व मानवाधिकारों का ठेका अधिकतर इन्हीं जैसे बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों, न्यायविदों व सरकारी-ग़ैरसरकारी सामाजिक कार्यकर्ताओं के ही पास है। अपने छोटे-छोटे निहित स्वार्थों के लिए ये लोग जाने-अनजाने अपनी अस्मिता विदेशियों को बेच चुके हैं। इन लोगों की लॉबी में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनेक चेहरे शामिल हैं। कंप्यूटर क्रान्ति आ जाने के बाद से तो ये अनेक सोशल साइट पर भी (24 गुना 7 दिन) सक्रिय हैं। जो भारतवर्ष की राजनीतिक पराजय के लिए ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण अस्तित्व को ही एक सिरे से डुबाने की साजिश में विभाजन के उपरान्त से ही तल्लीन हैं। ये कभी यूरोप-अमेरिका, रूस व चीन की लॉबी में दौड़ते-भागते, कूद-फांद करते रहे, तो अब मौजूदा दौर में जबसे प्रधानमंत्री मोदी जी ने कार्यभार सम्भाला है तबसे सीधे या छद्म रूप से पाकिस्तानी लॉबी में अपनी नई पारी खेल रहे हैं और शतक पर शतक जड़े जा रहे हैं।

मुहम्मद अली जिन्नाह (1876—1948) पाकिस्तान के मुख्य खलनायक के रूप में सीधे-सीधे जिन्नाह को जाना जाता है। ये बीसवीं सदी के एक प्रमुख राजनीतिज्ञ थे। जिन्हें पाकिस्तान के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। वे मुस्लिम लीग के नेता थे जो आगे चलकर पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बने। पाकिस्तान में, उन्हें आधिकारिक रूप से क़ायदे-आज़म यानी महान नेता और बाबा-ए-क़ौम यानी राष्ट्र पिता के नाम से नवाजा जाता है। उनके जन्म दिन पर पाकिस्तान में अवकाश रहता है।

मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 ई. में हुई। शुरु-शुरू में जिन्ना अखिल भारतीय मुस्लिम लीग में शामिल होने से बचते रहे, लेकिन बाद में उन्होंने अल्पसंख्यक मुसलमानों को नेतृत्व देने का फैसला कर लिया। 1913 ई. में जिन्ना मुस्लिम लीग में शामिल हो गये और 1916 ई. के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता की। 1916 ई. के लखनऊ समझौते के कर्ताधर्ता जिन्ना ही थे। यह समझौता लीग और कांग्रेस के बीच हुआ था। कांग्रेस और मुस्लिम लीग का यह साझा मंच स्वशासन और ब्रिटिश शोषकों के विरुद्ध संघर्ष का मंच बन गया। 1920 ई. में जिन्ना ने कांग्रेस के इस्तीफा दे दिया। इसके साथ ही, उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि गान्धीजी के जनसंघर्ष का सिद्धांत हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन को बढ़ायेगा कम नहीं करेगा। उन्होंने यह भी कहा कि इससे दोनों समुदायों के अन्दर भी ज़बरदस्त विभाजन पैदा होगा।

मुस्लिम लीग का अध्यक्ष बनते ही जिन्ना ने कांग्रेस और ब्रिटिश समर्थकों के बीच विभाजन रेखा खींच दी थी। मुस्लिम लीग के प्रमुख नेताओं, आगा खान, चौधरी रहमत अली और मोहम्मद अल्लामा इकबाल ने जिन्ना से बार-बार आग्रह किया कि वे भारत लौट आयें और पुनर्गठित मुस्लिम लीग का प्रभार सँभालें। 1934 ई. में जिन्ना भारत लौट आये और लीग का पुनर्गठन किया। उस दौरान लियाकत अली खान उनके दाहिने हाथ की तरह काम करते थे। 1937 ई. में हुए सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली के चुनाव में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी और मुस्लिम क्षेत्रों की ज्यादातर सीटों पर कब्जा कर लिया। आगे चलकर जिन्ना का यह विचार बिल्कुल पक्का हो गया कि हिन्दू और मुसलमान दोनों अलग-अलग देश के नागरिक हैं अत: उन्हें अलहदा कर दिया जाये। उनका यही विचार बाद में जाकर जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त कहलाया।

लखनऊ समझौता या लखनऊ अधिवेशन भारतीय आंदोलनकर्ताओं के दो दल थे। पहला था “नरम दल” और दूसरा गरम दल। यानि—उदारवादी गुट और उग्रवादी गुट! उदारवादी गुट के नेता किसी भी हालात में उग्रवादियों से कोई सम्बन्ध स्थापित करने के पक्ष में नहीं थे अतः राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर हो गया था, इसलिए आंदोलन को सुदृढ़ करने के लिए दोनों दल के नेताओं को साथ लाने की आवश्यकता पड़ी। अतः डॉ. एनी बेसेंट ने लखनऊ समझौता या लखनऊ अधिवेशन का आयोजन बाल गंगाधर तिलक के साथ मिलकर 1916 ई. में किया। डॉ एनी बेसेन्ट (1 अक्टूबर 1847 ई.—20 सितम्बर 1933 ई.) अग्रणी आध्यात्मिक, थियोसोफिस्ट, महिला अधिकारों की समर्थक, लेखक, वक्ता एवं भारत-प्रेमी महिला थीं। अतः सन 1917 ई. में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षा भी बनीं।

ख़ैर लखनऊ समझौता (अधिवेशन) के दो मुख्य उद्देश्य थे, प्रथम गरम दल की वापसी व द्वितीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता! मुख्यतः यह हिन्दू-मुस्लिम एकता को लेकर ही था। मुस्लिम लीग के अध्यक्ष जिन्नाह ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन तथा जिन प्रान्तों में मुस्लिम अल्पसंख्यक थे, वहाँ पर उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की मांग रखी थी, जो की कांग्रेसियों द्वारा सहर्ष स्वीकार कर ली गयी, लेकिन यह अंत में बेहद घातक सिद्ध हुई। इसी ने आगे चलकर विभाजन को जन्म दिया। इसे ही “लखनऊ समझौता” कहा जाता है।

मुस्लिम लीग के अध्यक्ष जिन्नाह भारतीय कांग्रेस के नेता भी माने जाते थे। पहली बार गांधी जी के “असहयोग आन्दोलन” का तीव्र विरोध किया और इसी प्रश्न पर कांग्रेस से जिन्नाह अलग हो गए। लखनऊ समझौता हिन्दु-मुस्लिम एकता के लिए महत्त्वपूर्ण कदम था परन्तु गांधी जी के ‘असहयोग आंदोलन’ के स्थगित होने के बाद यह समझौता भी भंग हो गया। इसके भंग होने के कारण जिन्नाह के मन में हिन्दू राष्ट्र के प्रेत का भय व्याप्त होना था। वो यह मानने लगे थे कि भारत को एक हिन्दू बहुल राष्ट्र बना दिया जाएगा! जिसमे मुसलमान को कभी भी उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा! इसके बाद जिन्ना एक नए मुसलमान राष्ट्र के घोर समर्थक बनता चला गया। जिन्नाह की जिद कहें या कठोर माँग थी कि आज़ादी के वक़्त जब ब्रिटिश सरकार सत्ता का हस्तांतरण करें, तो उसे हिंदुओं के हाथों कभी न सौपें, क्योकि इससे भारतीय मुसलमानों को हिंदुओं की ग़ुलामी करनी पड़ेगी। हमेशा उन्हें हिन्दुओं के अधीन रहना पड़ेगा!

“कभी-कभी मेरे मन में सवाल उठता है कि अगर वारसा जैसी सख्त संधि जर्मनी पर न थोपी गई होती, तो शायद हिटलर पैदा नहीं होता! यदि हिन्दू-मुस्लिम एकता वाले ऐतिहासिक ‘लखनऊ समझौते’ को किसी भी शक्ल में संविधान में समाहित कर लिया गया होता, तो शायद देश का बंटवारा नहीं होता!” भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी जी का यह कथन मुझे विचलित करता है। यह वाक्य उन्होंने तब कहा था, जब 2005 ई. में वह मनमोहन सरकार में रक्षामंत्री थे। प्रोफेसर ए. नंद जी द्वारा लिखित ‘जिन्नाह—अ करेक्टिव रीडिंग ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ नामक किताब के लोकार्पण का यह शुभ अवसर था।

(आलेख संदर्भ व साभार: विकिपीडिया तथा आज़ादी आंदोलन से जुडी किताबों व घटनाओं से)

•••

Language: Hindi
Tag: लेख
2 Likes · 2 Comments · 345 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
View all
You may also like:
*Near Not Afar*
*Near Not Afar*
Poonam Matia
प्रेम और भय क्या है दोनों में क्या अंतर है। रविकेश झा
प्रेम और भय क्या है दोनों में क्या अंतर है। रविकेश झा
Ravikesh Jha
Jul 18, 2024
Jul 18, 2024
DR ARUN KUMAR SHASTRI
बसंती हवा
बसंती हवा
Arvina
ग़म
ग़म
shabina. Naaz
प्रेम
प्रेम
Sushmita Singh
कोई चीज़ मैंने तेरे पास अमानत रखी है,
कोई चीज़ मैंने तेरे पास अमानत रखी है,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
याद है पास बिठा के कुछ बाते बताई थी तुम्हे
याद है पास बिठा के कुछ बाते बताई थी तुम्हे
Kumar lalit
तक़दीर साथ दे देती मगर, तदबीर ज़्यादा हो गया,
तक़दीर साथ दे देती मगर, तदबीर ज़्यादा हो गया,
Shreedhar
#गुरु ही साक्षात ईश्वर (गुरु पूर्णिमा पर्व की अनंत हार्दिक श
#गुरु ही साक्षात ईश्वर (गुरु पूर्णिमा पर्व की अनंत हार्दिक श
krishna waghmare , कवि,लेखक,पेंटर
ना कहीं के हैं हम - ना कहीं के हैं हम
ना कहीं के हैं हम - ना कहीं के हैं हम
Basant Bhagawan Roy
भजन- कावड़ लेने आया
भजन- कावड़ लेने आया
अरविंद भारद्वाज
ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी को ढूँढते हुए जो ज़िन्दगी कट गई,
ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी को ढूँढते हुए जो ज़िन्दगी कट गई,
Vedkanti bhaskar
रंजीत कुमार शुक्ला - हाजीपुर
रंजीत कुमार शुक्ला - हाजीपुर
हाजीपुर
विचार और भाव-2
विचार और भाव-2
कवि रमेशराज
Opportunity definitely knocks but do not know at what point - PiyushGoel
Opportunity definitely knocks but do not know at what point - PiyushGoel
Piyush Goel
" याद बनके "
Dr. Kishan tandon kranti
4063.💐 *पूर्णिका* 💐
4063.💐 *पूर्णिका* 💐
Dr.Khedu Bharti
*जिंदगी-भर फिर न यह, अनमोल पूँजी पाएँगे【 गीतिका】*
*जिंदगी-भर फिर न यह, अनमोल पूँजी पाएँगे【 गीतिका】*
Ravi Prakash
તે છે સફળતા
તે છે સફળતા
Otteri Selvakumar
लेखक
लेखक
Shweta Soni
स्टेटस
स्टेटस
Dr. Pradeep Kumar Sharma
शैलजा छंद
शैलजा छंद
Subhash Singhai
कहतें हैं.. बंधनों के कई रूप होते हैं... सात फेरों का बंधन,
कहतें हैं.. बंधनों के कई रूप होते हैं... सात फेरों का बंधन,
पूर्वार्थ
जिंदगी     बेहया     हो    गई।
जिंदगी बेहया हो गई।
रामनाथ साहू 'ननकी' (छ.ग.)
लहरों ने टूटी कश्ती को कमतर समझ लिया
लहरों ने टूटी कश्ती को कमतर समझ लिया
अंसार एटवी
दोहे- अनुराग
दोहे- अनुराग
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
पाप के छेदों की एम्बाडरी (रफु ) के लिए एक पुस्तक है। जीसमे
पाप के छेदों की एम्बाडरी (रफु ) के लिए एक पुस्तक है। जीसमे
*प्रणय*
शहर में मजदूर तबका केवल भाड़ा और पेट भरने भर का ही पैसा कमा
शहर में मजदूर तबका केवल भाड़ा और पेट भरने भर का ही पैसा कमा
Rj Anand Prajapati
देश हमारा
देश हमारा
ओमप्रकाश भारती *ओम्*
Loading...