बुझी-बुझी सी उम्मीद बरकरार भी है
बुझी बुझी सी उम्मीद बरकरार भी है
तुम ना आओगे मगर इन्तजार भी है
कोई खुशी नहीं रहती
जब अपने रूठ जाते हैं
नाउम्मीदी में तो सुनो
दरख्त भी सूख जाते हैं
बिन तुम्हारे जिन्दगी नागवार सी है
कैसे भूल जाऊँ भला
मैं वो चहकती हुई बातें
वो मचलते हुए से दिन
मैं वो महकती हुई रातें
बिन तुम्हारे हर लम्हा बेकार ही है
बुझती हुई उम्मीद को
कहीं से हवा मिल जाए
अगर तुम लौट आओ
दिल का चमन खिल जाए
बिन तुम्हारे कहां को॓ई बहार भी है
“V9द” मै हूँ नासमझ
टूटकर कहीं बिखर जाऊँ
थाम लो हाथ मेरा कहीं
अकेलेपन मैं सिहर जाऊँ
बिन तुम्हारे जीना मेरा दुश्वार ही है
स्वरचित
V9द चौहान