बुझदिल पड़ोसी
बड़ा बुझदिल पड़ोसी है नहीं सम्मान जो जाने/
कायर की तरह भौके नहीं अरमान जो जाने/
भरे नफरत सदा विषधर , दिखा जब सिंह धरती पे,
शावक बन गया बुझदिल दिखा जब सिंह का रुतबा /
हमारी संस्कृति ऐसी की दुश्मन प्यार करते है /
अगर अंतस की भाषा को – समझते काश ये जाहिल/
धरा के धर्म को भूले बड़े काफ़िर थे वे गीदड़ /
समाया था ये भय उनमे , धरा का दूध भी पानी/
दिया दावत नजायज था – मरा कब सिंह खाता है/
नहीं एहसास उसको था पड़ा जब सिंह से पाला /
राजकिशोर मिश्र ‘राज’ प्रतापगढ़ी