बीत चले अब दिन वे सुहाने…..
बीत चले अब दिन वे सुहाने
रही कहाँ वह बसंत बहार !
सुख के सारे स्रोत सूख गए
सह ले मन पतझर की मार !
कोयल कूका करती कभी थी
बैठ खुशी से अमुआ की डार
कहाँ खो गई मधुर तान वह
विलुप्त कहाँ सुखमय संसार !
दिन न मेरे अब बहुरेंगे कभी
आया जीवन का संध्या-काल
है सुखद सवेरा अभी दूर बहुत
घिर आया देखो फिर अंधियार !
सूने नभ में एक चाँद खिला था
मंडराने लगे उस पर भी बादल
अभी और क्या-क्या पड़े देखना
मन, हर गम सहने को रह तैयार !
-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“मनके मेरे मन के”