बीती दास्तान
बीती दास्तान
सूरत ही बता रही है कि इमारत बुलंद थी
इक बीती दास्तान मेरे दिल में ही बंद थी।
इस झील के किनारे कभी रौनक की थी दुनिया
किस्से हमारे रूप के भी सुनाती थीं परियाँ।
थे इस जमीं पर उतरे कभी चाँद और तारे
इस खुशनुमा इमारत में हवा मदिर मंद थी।
थीं गूंजती कभी यहाँ किलकारी ज़िन्दगी की
हरसू हमारे इर्द गिर्द बिखरी सुगंध थी।
बीते हुए वैभव का तुम्हें हो जाएगा अहसास
आओ करीब बैठो तनिक आओ तो मेरे पास।
आज दिख रहा हूँ मैं तुम्हें एक पुरानी सी कविता
बीते वो दिन जब ये काया गीत ग़ज़ल और छंद थी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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