बीज नफरत के
काटेंगा वो क्या फसल प्यार की ।
बीज नफ़रत का जिसने बोया है ।
गैरों की ख़ातिर अक्सर हमने,
अपनो को ही तो खोया है ।
बिलिदानों की बलि बेदी पर ,
बस लाल माँ ने ही खोया है ।
थामे लाठी कौन नही सहारा ,
बूढ़ा बाप सोच सोच रोया है ।
प्रहरी जागता रात भर जो ,
भोर भए वो भी सोया है ।
खाता कसमें देश प्रेम की जो ,
वो तो बस भूखा ही सोया है ।
नाम नही उस दाने पर उसका ,
दाना गर्भ धरा जिसने बोया है ।
गैरो की ख़ातिर अक्सर हमने।
… विवेक दुबे”निश्चल”@..