बीज की अभिलाषा
पेड़ के नीचे एक बीज था पडा़।
सोच था मन में-
क्या वृक्ष बनकर हो पाऊँगा खड़ा?
क्या मिल पाएगी मुझको जल, हवा?
क्या कर्त्तव्य-बोध वहन कर पाऊँगा मैं?
क्या किसी के काम आऊँगा मैं?
क्या किसी का ठौर बसेरा बन पाऊँगा मैं?
या यहीं पडा़ सड़ जाऊँगा मैं।
चाह मेरी वृक्ष बन पाऊँ मैं।
काश! किसी के काम आऊँ मैं।
पक्षियों को दुलारूॅं, पथिक को पुकारूॅं।
खडा़ होकर इस दुनियाँ को निहारूँ।
तभी एक बच्चा आया, बीज को उठाया।
खेलते-खेलते कुछ दूर मिट्टी में दबाया।
बीज में कौंधी आशा की किरण थी।
बच्चे द्वारा मिली उसे संजीवन थी।
अहा! किसी दिन हरा-भरा हो पाऊंगा मैं।
फिर अपना धर्म निभाऊंगा मैं।
काश! मनुष्य को भी कर्त्तव्य बोध हो पाता।
स्वार्थ तज वह भी किसी के काम आता।
— प्रतिभा आर्य
अलवर (राजस्थान)