बिरवा कहिसि
हमका यहु गर्व हवै बहुतै
अपना तन तोहि लुटाइत है।
जब भूख ते व्याकुल आयौ कबो,
हम आपनि डाल लचाइत है।
तुम्हरे जब घामु लगै कसिकै,
हंसिकै हमही जुड़वाइत है।
तुम काहेक काटति हौ हमका,
हम ना तुमका दुरियाइत है।।
तुम्हरी दुर्गंध बयारि भखी,
तुम का हम नीकि सुघाइत है।
मरुभूमि करी उपजाऊ सदा,
बरिखा तुम्हरे हित लाइत है।
जनमानस हेतु निछावर हौं,
हम तोहि यहै बतलाइत है।
तुम काहेक काटति हौ हमका,
हम ना तुमका दुरियाइत है।।
बन औषधि तोहि निरोग करी,
घर बाहर कामन आइत है।
खिरकी दरवाज केवार मुहार,
छतै तन ते बनवाइत है।
पकवान पकैं हमरे धर ते,
अपने उपरै पहुढा़इत है।
तुम काहेक काटति हौ हमका,
हम ना तुमका दुरियाइत है।।
पशु पच्छिन वास करै हम पै,
हम देखि सदा हरसाइत है।
फल खाय चुगै मल त्यागि दियै,
हम नाहि कबौ हरकाइत है।
उनके गुन नीकि लगै तुमका,
तुम्हरे हित ही दुलराइत है।
तुम काहेक काटति हौ हमका,
हम ना तुमका दुरियाइत है।।
हम मांगित नाहि कछू तुमते,
अपने मन मा सकुचाइत है।
नहिं रोपति हौ, तुम काटति हौ,
बसि आजु यहै दुखु पाइत है।
हम ना रहबै, तुम ना रहिहौ,
यहिते तुम का समुझाइत है।
तुम काहेक काटति हौ हमका,
हम ना तुमका दुरियाइत है।।
___सतगुरु प्रेमी