बिगड़ी आबोहवा
***बिगड़ी आबोहवा (ग़ज़ल)***
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उठ रहा काला धुंआ आज कल,
बुझ रहा जलता दीया आजकल।
जाति तक सीमित है इंसान अब,
देश की मजहब भाषा आजकल।
है सभी की बिगड़ी आबोहवा,
लांघ दी सारी सीमा आजकल।
साथ मिलते है कब अपने यहाँ,
काम आता है बीमा आजकल।
यार मनसीरत लगता सबसे जुदा,
भींचते है चौड़ा सीना आजकल।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)