* बिखर रही है चान्दनी *
** कुण्डलिया **
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बिखर रही है चान्दनी, धरती पर हर ओर।
नैसर्गिक वातावरण, मधुर बना हर ओर।
मधुर बना हर ओर, रजत किरणें चन्दा की।
साथ घुल रही खूब, महक रजनीगंधा की।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, घटा जब निखर रही है।
आभा लिए असीम, चान्दनी बिखर रही है।
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हर मन भाए चन्द्रमा, है अँधियारी रात।
और साथ टिमटिम करें, तारों की बारात।
तारों की बारात, गगन में चमके झिलमिल।
लिए रौशनी श्वेत, चान्दनी खूब रही खिल।
कहते वैद्य सुरेन्द्र, स्नेह के भाव जगाए।
नैसर्गिक यह दृश्य, देखिए हर मन भाए।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, १२/०३/२०२४