बिखरते अहसास
जाने कितनी तारीखों से
गुजरे तब अहसास बने ।
तिनके तिनके हुए जमा
तब छत के आसार बने ।
मद्धिम सी वर्षों की लौ पर
सारे अहसास पकाये थे ।
तिनकों का ताना बाना बुन
सिर पर छ्त रख पाये थे ।
किन्तु कहां सोंचा हमने
आंधी ऐसी भी आयेगी ।
लौ छू लेगी तिनकों को
सब ओर आग लग जायेगी ।
आग लगी तो बढ़ा ताप
अहसास जले सब हुए राख ।
था कुछ इतना तीव्र ताप
न एक अश्रु भी रहा आंख ।
अब राख बची वर्षों की बस
कुछ तिनके सुलग रहे अब तक ।
क्यो उनमें संचित दिखी नमीं ?
क्या शेष रह गयी कोई कसक ?
मैं आग बुझा तो न पाई
पर झुलस गया ये मेरा मन ।
असह्य ताप है मन का प्रभु
दो मुझको शीतल मलय पवन ।