चाटुकार मिडिया
तलबे चाट रही मिडिया
देह बेचकर
सत्ता के हाथों में
घूंघट ओढ़े
इन्तजार कर रही
हनीमून मनाने रातों में ।
खरीद लिया है
लिखने बाली कलमों को
स्याही भी
बेशर्म हो रही
झूठी दास्ताँ में छपने को ।
साहिब अपने
मिडिया की कोख में
भरे है सपने
पैदा कर रहे ऐसे एंकरों को
गोदी में बिठाकर दांत दे रहे
लोकतंत्र का खून
चखने को ।
राँड़ हो जाएगी मिडिया
होकर विधबा
कौन रुदाली आएगी
सुहाग सम्भालो अपना
जूठा गुणगान
मिडिया का सिंदूर बचाएगी ।
देवदासी हो गयी मीडिया
नजरें चुरा कर
बैठी है
देव खींच रहे साड़ी उनकी
मुँह में हंसी दबाए
लोकतंत्र के मंदिर में
लेटी है ।
पढ़ेलिखे सब गुलाम
हो रहे
देखो लोकतंत्र के
शासन में
आजादी को कुंद
कर रहे
देवभक्ति की चाहत में ।
चाटुकारिता सिर चढ़ी हुई है
लिखने बालों की
भाषा में
भाट हो गए साहित्यकार
इनाम पाने की
अभिलाषा में ।
हर आंदोलन
आतंकी हो गया
मीडिया की परिभाषा में
पटना में गरजे थे जेपी
बरना होते आज
किसी जेल की शाखा में ।