बाली का बाग- (विभिन्न छंदों के उदाहरण)
दशरथ जटायु
बाली का बाग
पद पादाकुलक,पद्धरि,
श्रृंगार , गोपी,चौपई या
जयकरी छंद आदि ।
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1
पद पादाकुलक
संतो के मुख से कथा सुनी ।
दे शब्द भाव जिसतरह बुनी।।
करता सेवा में वही पेश ।।
देना अशीष गुरु को विशेष।।
2
पद्धरि
दशरथ नृप नभ में किया जंग।
सुर असुर सभी हो गये दंग।।
जीते रण अपने चला दाव ।
पर तन में हुए अनेक घाव।।
3
पद्धरि
रथ चला डगमगा डोल डोल।
संतुलन गया विपरीत बोल।।
राजा दशरथ बेहाल देख ।
वाहन की डगमग चाल देख ।।
4
पद्धरि
संकट में मीत नरेश देख।
आफत का समय विशेष देख।
दौड़ा जटायु करके विचार ।
कर पीठ लिया रथ को सवार।
5
पद्धरि
नभ में जा सबका वजन साध।
रथ राजा रानी अश्व लाद ।।
सब शक्तिभक्ति का लगा जोर।
ले मित्र प्रेम को हिय हिलोर।।
6
पद पादाकुलक
उड़ चले पंख चल पडी चोंच।
आई न किसी के तन खरोंच ।।
बच गये सही सबके शरीर ।
भूपर लाया खग परमवीर ।
7
पद पादाकुलक
छोड़ा बाली के बाग लाय ।
पंपा उत्तम तीरथ कहाय ।।
चिकित्सा का अनुकूल प्रभाव।
सभी भर रहे दिनों दिन घाव ।।
8
श्रृंगार
बाग में जड़ी बूटियाँ खास ।
इसी कारण यह अल्प प्रवास
व्यवस्था सभी उचितअनुकूल।
हवा पानी तरु खग मृग फूल।।
9
श्रृंगार
करे कैकेई सब उपचार ।
हुआ है आशातीत सुधार।।
एक दिन पती प्रेम की आग।
पालकर गर्व मान कर भाग।
10
श्रृंगार*
घूमने रानी निकली बाग
जहाँ खग गाते कलरव राग
हो रही रतीनाथ की वृष्टि
पड़ी बाली पत्नी पर दृष्टि ।।
11
श्रृंगार
देख कर रूप राशि लावन्य।
स्वयं से सुन्दर जग में अन्य ।
सुकोमल अंगों में तन श्रेष्ठ।
न पद में होगी मुझसे ज्येष्ठ।।
12
गोपी
झुके जग वैभव के धुज को।
नमस्ते यही करे मुझको ।।
सोच का चढ़ा गिरा पारा।
तभी आकर बोली तारा।।
13
श्रृंगार
बाग में मेरे आप पधार ।
रहीं कर सभी तरह निस्तार।
कौन सी भाव धार में बहीं।
नमस्ते भी तक करतीं नहीं।
14
श्रृंगार
रूप परिधान सभी है उच्च।
शिष्ट आचार दिखे है तुच्छ ।।
रूपसी तुम सुन्दर सुकुमार ।
जानती नहीं जरा व्यवहार।।
15
श्रृंगार*
नहीं हो अगर असभ्य गँवार।
देख लो खूब विवेक विचार ।।
तुम्हे तुमको प्यारा भरतार।
रहो मत होकर गर्व सवार।।
मुसीबत में पड़ने से डरो।
सुन्दरी मुझे नमस्ते करो।
16
श्रृंगार
अयोध्या नाथ वीर बलवान।
न कोई जग में वीर समान ।।
अकेले चक्रवर्ती सम्राट ।
नहीं है भू पर उनका काट।
17
गोपी
उन्हीं की मैं हूँ प्रिय रानी ।।
जंग देवासुर रण ठानी ।
अभी तक बात न तुम जानी।
समझती मुझको अभिमानी।
किसी भी गफलत में मत परो।
सुन्दरी मुझे नमस्ते करो ।
18
श्रृंगार
सुना बल वैभव का अभिमान।
हँसी तारा बोली अनजान।।
कहाँ का देवासुर संग्राम ।
महाभट है पंपापुर धाम।
19
गोपी
नाम सुन जग थर्राता है ।
लड़े बिन शीश झुकाता है।।
यहाँ जो जोधा आता है ।
जीतके कभी न जाता है ।
20
श्रृंगार
सदा हम करें अतिथि सत्कार।
चल रहा प्रीतम का उपचार ।
लड़ेगा तो निश्चित हो हार।
मुझे मत उकसा बारम्बार ।
21
श्रृंगार
स्वयं की दिशा दशा अनुसार।
देख लो तेल तेल की धार।
तुम्हारी फिरी हुई है मती।
सजन की न कराओ दुरगती।
लजाना पड़े न वह पग धरो।
अभी तक मुझे नमस्ते करो ।।
22
जयकरी या चौपई
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तुमसे सब प्रकार हूँ श्रेष्ठ ।
मेरे पास प्रमाण यथेष्ठ ।।
गीदड़ भभकी देख न डरूँ।
और न तुझे नमस्ते करूँ ।
23
चौपई या जयकरी
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तजूँ न राजवंश की लीक ।
नहीं न ऐसा झुकना ठीक ।
साजन अभी बुलाकर पास।
तेरी पूर्ण करूँ अभिलाष।
24
जयकरी या चौपई
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दोनों के पतियों की जंग ।
निर्णय हार जीत के संग।।
शर्त की बात सके न मेंट।
हारा दे रानी की भेंट ।।
25
श्रृंगार
नहीं रानी देना मंजूर ।
मुकुट तो देना पड़े जरूर ।
कहा तारा ये तुम लो सोच ।
बाद में शब्द न खायें लोच।
26
जयकरी या चौपई
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हिय से विजय विवेक विचार।
साधो संयम शिष्टाचार ।
धीरज धरम मित्र अरु नार।
चारों बनो खुशी भरतार।
27
गोपी
शर्त स्वीकार तुम्हारी है।
युद्ध करना लाचारी है।
अवध से नहीं ईर्ष्या बैर।
मानो बनी अभी तक खैर।
28
श्रृंगार
लड़ें पति अपना मिटे विवाद।
युद्ध में हार जीत के बाद ।
छोड़ कर स्वाभिमान की टेक।
सामने सही फैसला देख ।
29
श्रृंगार
बताये समय खींच कर रेख।
लिखे आदर पाने का लेख।
रहे ना ग्लानि हमारे बीच ।
मधुरता रहे सुधा सम सींच।
उचित व्यवहार रीति से भरे ।
हार कर भले नमस्ते करे।
30
श्रृंगार
बता मत अधिक ज्ञान उपदेश।
लगी तारा को यह सुन ठेस।
बुला बाली करवायी जंग ।
अवधपति हुए हार कर दंग।
31
गोपी
होश खो बैठी रानी है।
हार हिय शूल समानी है।
मुकुट दे दिया रिसानी है।
खीज कर बोली बानी है।
32
गोपी
हमारा बेटा आएगा ।
शौर्य अपना दिखलाएगा।।
विजय बाली से पाएगा ।
मुकुट वापस ले जाएगा ।।
33
श्रृंगार
खोलने लगीं खीज की पर्त।
लगाई तुमने ही यह शर्त।।
निभाया ऐसा कैसा धर्म ।
आ रही खीज साथ में शर्म ।।
34
गोपी
शांत हो मधुर भाव बहिये।
हार के बाद न ये कहिये ।।
नहीं प्रतिशोध आग दहिये ।
आपका मुकुट नहीं चहिये।।
35
श्रृंगार
पति हैं धर्मशील गुणवान।
उनका करें सदा सम्मान।।
इस तरह व्यर्थ भड़कती हो।
जले पर नमक छिड़कती हो।
36
श्रृंगार
होगा वही सुनो श्रीमान ।
जैसा चाहेंगे भगवान ।।
सके न कोइ कलम को काट।
प्रभु ने जो भी लिखा ललाट।।
37
श्रृंगार
रूप बल बुद्धि सम्पदा ज्ञान।
किसी का नहीं करो अभिमान।
सदा अपनी औकात विचार ।
ध्यान से पालो शिष्टाचार ।।
38
श्रृंगार
झूठ का दंभ न हिय में धरो ।
जरा ऊपर वाले से डरो ।।
गर्व की गैस न खुद में भरो।
रूप को पशु समान न चरो।।
39
श्रृंगार
वतन की खातिर हँस कर मरो।
हास्य के सुमन सरीखे झरो।
दिलों में प्यार मुहब्बत भरो।
नमस्ते करो ,नमस्ते करो ।।
40समापन
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सभी जायँगे एक दिन वो ही रस्ते ।
बँधे हैं रखे गुप्त सबके ही बस्ते।
विदा लें गुरू जी विदाई से पहले,
सभी को हमारी नमस्ते नमस्ते ।।
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
26/1/2021