बालिका वधु
फूलों जैसी नाज़ुक होती बेटी।
कितने सारे ख़्वाब सँजोती बेटी।।
डोली में चढ़कर होती है रुख़सत ।
और सभी की आँख भिगोती बेटी।।
बाबुल का घर आँगन सूना करके ।
गले सजन के हार पिरोती बेटी।।
बचपन की सब यादें, सखी सहेली ।
गुड़िया, खेल-खिलौने खोती बेटी।।
दुल्हन बनकर रस्म-रिवाज निभाती।
दो – दो घर का बोझा ढोती बेटी।।
चोट लगे तब हँसकर, वह सह लेती।
खुलकर भी दो पल न रोती बेटी।।
ममता की मूरत भोली-भाली सी।
संग शिशु के थककर सोती बेटी ।।
(जगदीश शर्मा)