बारिश का पानी
बिना रंग रूप कितना अकड़ती
संसार की तीन भाग पे रहती
यूंही ही नहीं तू राज करती
प्यास बूझा कर प्राण लाती ।
नदियों को मधो मस्त करती
पोखर में तू संचित होती
नहर मे बहने का संकोच नहीं
कुआं का तू है आश
बची रहती तो धरती मे रहती
बाकी तू बादल में समाही ।
दे सद्बुद्धि सब को तू
जो करें बर्बाद तुझे
पेड़ – पौधे की शान तू
बंजर भू की जान तू ।
रंग भेद ना देखे तू
इंद्र का वरदान पाई जो
नीर , तोय और पानी
जाने तेरे कितने नाम ?
गंगा मां से पहचान तुम्हारी
शर्बत पीकर सब आह करता
आग को है डर तुझसे
मिनरल का खज़ाना तुझमें ।।
गौतम साव