*बारात में पगड़ी बॅंधवाने का आनंद*
बारात में पगड़ी बॅंधवाने का आनंद
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जब हमारी आयु तिरेसठ वर्ष हो गई, तब 22 अप्रैल 2024 को बारात में पगड़ी बॅंधवाने का आनंद पहली बार अनुभव किया। इससे पहले बारातें तो बहुत कीं, लेकिन या तो उन बारातों में रेडीमेड पगड़ी पहनी या पगड़ी का चलन नहीं हुआ या हम पगड़ी बॅंधवाने के समय से कुछ देर में पहुॅंचे।
22 अप्रैल 2024 को हम अपनी पुत्रवधू डॉक्टर प्रियल गुप्ता के भाई आयुष्मान पुलक की बारात में सम्मिलित होने के लिए जब वुड कैसेल रिजॉर्ट, जिम कॉर्बेट पार्क, रामनगर, नैनीताल (उत्तराखंड) के रिसेप्शन हॉल में उपस्थित हुए, तब सबसे पहले पगड़ी बॅंधवाने का सौभाग्य हमें ही प्राप्त हुआ।
पगड़ी बॉंधने के लिए कुशल हाथ बारातियों की प्रतीक्षा कर रहे थे। कलाकार ने कपड़े का एक सिरा उठाकर हमारे सिर पर बांधना आरंभ किया। उस सिरे को उसने हमें कसकर पकड़े रहने के लिए कहा। फिर उसके बाद लपेट देते हुए एक के बाद एक लपेट सिर पर आती गईं। देखते ही देखते लंबे रंग-बिरंगे कपड़े ने पगड़ी का रूप धारण कर लिया। कपड़े को मोड़ते हुए उसे कान की तरफ थोड़ा सा खिसकाते हुए गोलाई से मोड़ देने की कला जिसे आती है, वही कुशल पगड़ी बांधने वाला कलाकार होता है। पगड़ी बांधने की कला का रहस्य यह है कि पगड़ी इतनी ढीली न रह जाए कि जरा-सी ठसक लगते ही खुल जाए। इस तरह कमजोर पगड़ी बॉंधने का परिणाम पगड़ी खुल जाना होता है। इससे सारे किए धरे पर पानी फिर जाता है।
पगड़ी अगर अधिक कसकर बॉंधी जाएगी तो उसमें खतरा यह है कि जिसके पगड़ी बॉंधी गई है, थोड़ी देर बाद उसके सिर में दर्द होने लगेगा। अत्यधिक कसाव से आंखें बेचैन हो जाऍंगी । चेहरे में तनाव के लक्षण दिखने लगेंगे। व्यक्ति स्वयं को अस्त-व्यस्त महसूस करेगा। अर्थात पगड़ी एक दुखदाई बोझ बन जाएगी।
कुशल कारीगर लपेट देते हुए कपड़े को पगड़ी का रूप इस तरह देता है कि वह सिर पर शोभायमान भी हो जाती है, मनुष्य को उसे पहने रहने में थकान अथवा तनाव भी नहीं होता और छोटे-मोटे किसी झटके से वह खुलती भी नहीं है। ऐसी पगड़ी लंबे समय तक सिर पर शोभायमान रहती है।
पगड़ी बॉंधने का कार्य कुशल कारीगर दो-ढाई मिनट में कर देते हैं। एक बार में ही पगड़ी बढ़िया बॅंध जाती है। हमारे साथ और भी कई बारातियों ने पगड़ी बॅंधवाई। एक भी मामले में पगड़ी को दोबारा नहीं बॉंधना पड़ा। यह कारीगर की कुशलता का द्योतक है।
पगड़ी बॅंधवाने में जहां एक ओर पगड़ी बॉंधने वाले का योगदान होता है, वहीं थोड़ा-सा योगदान पगड़ी बॅंधवाने वाले का भी होता है। उसे पगड़ी बॅंधवाना शुरू करते समय ही एक सिरा कसकर पकड़ लेना होता है। कसकर अर्थात ऐसे कि ढीला न रह जाए। पगड़ी का सिरा कस कर पकड़ने का अभिप्राय यह भी नहीं है कि कपड़े के उस सिरे से हम खींचातानी करें । इसमें भी विपरीत परिणाम आता है। आराम से लेकिन खिंचाव के साथ पगड़ी का एक सिरा बॅंधवाने वाले को अपने हाथ से पकड़ना ही पड़ता है। पगड़ी बॅंधवाने वाले को अपना सिर और गर्दन सीधी रखनी होती है। अगर वह अनावश्यक रूप से हिल-डुल रहा होता है तो पगड़ी बॉंधने में परेशानी आती है। वास्तव में तो पगड़ी बॉंधने और बॅंधवाने के सामंजस्य से ही पगड़ी में निखार आता है।
पगड़ी बॅंधने के बाद व्यक्ति का व्यक्तित्व निखर उठता है । उसकी आभा द्विगुणित हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे कोई मुकुट किसी के मस्तक पर सुशोभित हो। जो लोग एक बार पगड़ी पहन लेते हैं, फिर जब उस पगड़ी को उतार कर रखते हैं; तब ऐसा लगता है जैसे सिर पर कोई महत्वपूर्ण वस्तु कम हो गई हो। पगड़ी व्यक्ति की शान की पहचान होती है। पगड़ी में व्यक्ति का सम्मान निहित होता है।
किसी न किसी रूप में पगड़ी पहनने की प्रथा शताब्दियों से चली जा रही है। बॅंधी-बधाई रेडीमेड पगड़ी बहुत से लोग पहनते हैं। टोपी पहनना भी पगड़ी का ही एक रूप है। अनेक बार सिर पर रूमाल रखकर तीर्थ में व्यक्ति जाते हैं। इन सबसे अभिप्राय यही है कि खाली सिर के स्थान पर किसी न किसी रूप में पगड़ी बॉंधना बेहतर समझा जाता है। ‘पगड़ी उछालना’ जैसे मुहावरे भी पगड़ी में निहित व्यक्ति की शान के कारण ही अस्तित्व में आए हैं।
पगड़ी बॉंधने वाले कलाकारों तथा पगड़ी बॉंधने का इंतजाम करने वाले वर पक्ष के सभी आयोजकों को हृदय से धन्यवाद।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451