बारहमासा—-
आषाढ़ सावन जब मास रहा,
घिरते बादल नयनाभिराम ।।
ढूंढते रहे थे पथिक छाँव,
गिरती थी बूँदें जब ललाम ।।
मजदूर कृषक थे घूम रहे,
नहीं था दिखता कोई काम ।।
क्वार कातिक मास जौ आये,
तब आई संस्कृति धरा धाम ।।
आये थे तब पितर हमारे,
देखन हमको वो अविराम ।।
कुछ को मिला कुछ रहे अभागे,
निज भूखे प्यासे गये धाम ।।
दुर्गा पूजा रहा दशहरा,
दीवाली आई धरा धाम ।।
छठ पूजा फिर रही एकादश ,
देव दीवाली गयी शाम ।।
उठ गये शयन ते विष्णु देव,
गाजा बाजो का बढ़ा काम ।।
मार्गशीर्ष मे शादी गौना,
अरू खेती बारी चले काम ।।
छाई बेकारी दूर हो गयी,
नर नारी सब करते काम ।।
रवि बुआई चलेगी अब तो,
संचित जल देने का काम ।।
पूस मास के दिन भी छोटे,
होती रजनी ललित ललाम ।।
माघ के सूरज लगते प्यारे,
धूप सेंकते सब अविराम ।।
फागुन होती समा निराली,
बहती है अंधड अविराम ।।
होली आती रंग खेलते,
होता उत्सव ललित ललाम ।।
चैत मास फिर पितर हैं आते,
पुरखे सबके निरखन धाम ।।
मातु देवियनु पूजन होता,
धूप है लगती चंचल शाम ।।
वैशाख मास फिर खेती बारी,
चलते रहते अविरल काम।।
शेष मास अब जेठ हमारा,
बचते रहते भीषण घाम।।
कथा यही है बारहमासा,
जीवन मे चलती अविराम।।