बाबूजी
बाबूजी
घर की बुनियादें ,घर की एक नींव थे बाबूजी
कुछ नही कहते न कभी ज्यादा हंसते चुप ही रहे बाबूजी
माँ का गुस्सा,हंसी ओर खनक थे बाबूजी।। हमेशा काम मे लगे रहते ,कभी अकेले बड़बड़ाते चलते रहते ,
ज्यादा बोलने पसन्द नही था उनको जब भी बोलते रुकते नही थे बाबूजी।।
जब कभी बाहर जाते सब के लिए कुछ लाते,कभी न भूलते बाबूजी
अहमदाबाद की मिठाई,हो या कलाकन्द,सब उठा
लाते बाबूजी।
खुद थे सख्त बहोत सबके लिए लेकिन दुसरो की सख्ती नापसन्द करते बाबूजी।।
सुबह उठकर बड़बड़ाते ,चलते फिरते बाबूजी।।
घड़ी की सुइयों में सुबह की प्रतीक्षा करते रहते,
फिर जल्दी उठकर अखबार ढूंढते बाबूजी ।।
बिन अखबार के चेन न लेते थे ,दरवाजे पर
उसकी एकटक राह देखते बाबूजी।।
उसके आते ही अखबार कसकर पकड़कर भाग
लेते थे बाबूजी।।
रोज की यही दिनचर्या थी उनकी खबरे पढ़कर ही
चेन पाते थे बाबूजी।।
नहा धोकर तैयार हो दफ्तर चल देते ,कभी न थकते थे बाबूजी।।
लौटकर घर अपने रोज नई कहानी कहते बाबूजी। इतनी बातें,इतने किस्से जाने कहा से लाते थे बाबूजी।
फिर एक अनंत यात्रा पर जाने क्यों चल दिये बाबूजी
गहरी नींद में सो गए अचानक ही सब छोड़
सब कहते रह गए बाबूजी ।कहा चल दिये बाबूजी।। ।।
कविता चौहान।।