बाबुल का आंगन
“बाबुल का आंगन”
बाबुल का वो आंगन जिसमें मैं पली बढ़ी,
जहां मैं पैदा हुई अपने पांव पर जहां खड़ी हुई।
याद हर पल आता है वो मायके का आंगन,
वो पापा का प्यार दुलार और मां का आलिंगन।
कितने ही बड़े हो गए हम मगर मानता नहीं ये मन,
कैसे भूलें हम अपना वो मायका अपना बचपन।
छोटी छोटी गलतियों पर मम्मी डांट लगाती थी,
अगले ही पल पापा की गोद में हम सुकून पा जाती थी।
भाई बहन की नोकझोक में हमने खूब उधम मचाए हैं,
याद आता है वो बचपन जिसने मुझे कितने रंग दिखाए हैं।
लाड प्यार में पली बढ़ी मैं एक दिन घर से विदा हुई,
मां का आंचल छूटा मुझसे मायके से मैं जुदा हुई।
काश मैं इतनी बड़ी न होती छोटी बच्ची ही रहती,
मां बाप के स्नेह छांव से एक पल भी वंचित न रहती।
हे ईश्वर ये भी हैं कैसे विधान तेरी कैसी अजीब माया,
जिनके घर में जन्म लिया उनका ही क्यों छूटता है साया।
क्यों आखिर बेटियों को अपने मां बाप से दूर हो जाना पड़ता है,
बाबुल का आंगन छोड़ अनजान घर में आजीवन रहना पड़ता है।।
✍️ मुकेश कुमार सोनकर, रायपुर छत्तीसगढ़