जनपक्षधरता के कालजयी कवि रमेश रंजक :/– ईश्वर दयाल गोस्वामी
स्मृति-शेष नवगीतकार रमेश रंजक जी का पहला ही नवगीत देखिए जो आज और भी अधिक प्रासंगिक हो चला है- “धूप ने कर्फ्यू लगाया है।” भाव व शिल्प की दृढ़ता के साथ यह कालजयी है। यहाँ तक कि जो प्रतिरोध के स्वर अभिव्यंजित होकर उभरे हैं, वे भी कालजयी हैं। दूसरे नवगीत की पंक्तियों में देखें- “उफ/कलम होते हुए/पाबन्दियों में रह रहा हूँ/कह रहा हूँ।” आत्मग्लानि भी व्यंग्यात्मक सौंदर्य बोध देती है। पूरा नवगीत चित्ताकर्षक है।भाव-शिल्प की नवीनता के लिए तीसरा नवगीत देखिए- “पसलियों के/चटकने को/व्यर्थ जाने दूँ।” क्या अद्भुत आत्मविश्वास का समर्थन है देखें- “गड़ रहा है/ज़हन में बलगम।” एकदम नये प्रतीक में प्रतिरोध को सहजता से कहने का ढंग ही अलग है। चौथे नवगीत में देखें- पाँव जो/आगे बढ़ाता है/ बदन का नील।” एकदम नये रूपक में संघर्षों की सहज अभिव्यक्ति व संघर्षरत रहने की प्रेरणा भी। पाँचवें नवगीत में- “तुमको नाहक/डर लगता है/मुझको/सारा देश/नुमाइश घर लगता है !” जरा विचार करें तो डर कुछ-कुछ ऐंसा ही है जैसे- किसी का विज्ञापन। इसलिए “यह देश नुमाइश का घर है।” यह कहना बिल्कुल उचित है। कथ्य अपने आप में एक जानदार व शानदार मौलिक रूपक है। वास्तव में डर को ही हम आज समझते और समझाते चले आ रहे हैं। जैसे- “क्या है/डर की बात/बताओ/महतो,गोपी को/समझाओ।” इन पँक्तियों में यथार्थ की स्वीकारोक्ति ही इनका सौंदर्य बोध है। आगे देखें- ”यह समझाना/और बुझाना/मुझको एक/सफर लगता है।” इन पँक्तियों में यथार्थ को कितने करीने से प्रस्तुत किया गया है। वास्तव में हमारा पूरा जीवन ही भय को समझने व समझाने की एक यात्रा है। जैसे- “डर के आगे/आग जलाओ/कद्दावर शब्दों को लाओ।” में एक सार्थक व्यंग्य है। हम देखते कि जो लोग बेहद डरे हुए होते हैं, वही निर्भीकता की शाब्दिक ज्योति जलाते हैं। कुल मिलाकर यह नवगीत गंभीर मुद्दे को सहजता से प्रस्तुत करने का एक अनुपम उद्धरण है। छटवें नवगीत “द्वन्द्व की भाषा” भी सकारात्मक ऊर्जा का समर्थन करता हुआ एक सार्थक व्यंग्य है। सातवें नवगीत में भी नैराश्य को आत्मविश्वास में परवर्तित करने का प्रयास है। यथा- “शीशे की बाल/हो गई टूटन/बिम्ब लड़खड़ाए/रोशनी,अँधेरे से/कितने दिन/और मार खाए।” आठवाँ नवगीत वर्तमान सामाजिक विद्रूपताओं के चलते आने वाले अमंगल की सूचना व्यंग्यार्थ में प्रस्तुत करता है। जो वर्तमान व्यवस्था पर करारी चोट करने में सहज ही सफल है। नौवाँ नवगीत “अपने मुताबिक” तो एकदम नये दृष्टिकोण की न केवल घोषणा है। बल्कि उसके क्रियान्वयन के उपाय भी व्यंग्यात्मक ढंग से कवि समझाने में सफल हुआ है। यथा- “पालता हूँ इसलिए/ मुझको कहे जी/खोलकर/कसमसाती/छटपटाती/आस्था को तोलकर/ या ”मैं मरूँ/ मरने न दूँगा /पर उसे/रोज़ जिसमें/एक चिनगी बालता हूँ।” दसवें नवगीत में श्रम व संघर्ष की महिमा को नए प्रतीकों में बेवाकी से कहा गया है यथा-“धूप में जब भी/जले हैं पाँव/सीना तन गया है/और आदमकद/हमारा जिस्म/लोहा बन गया है।”
ग्यारहवें नवगीत में आँचलिक प्रकृति परिवर्तन व उसके गाँव एवं मानव मन मस्तिष्क पर हुए प्रभावों का प्रभावी ढंग से चित्रण किया गया है। बारहवें नवगीत में एक नया ही संदेश है कि हमने जो भी भोगा था उसकी अनुगूँज आज भी मिट्टी में है। तेरहवें गीत की भाषा श्रृंगारात्मक होते हुए भी रचना मूलतः प्रतिरोधात्मक है। अंतिम नवगीत “प्रगतिधर्मा राग” एक अप्रतिम अनुभूति का अवगाहन है। कवि कहना चाहता है कि प्रकाश शरीर में हो या घर में हो वह हमारी नींद उड़ाने के लिए पर्याप्त है। प्रकाश (रौशनी) प्रतीक रूप है जिसका अभिप्राय प्रगति का जुनून है और यह जुनून ध्वन्यात्मक है। इसकी अपनी मौलिक आवाज होती है यथा- “रोशनी आवाज होती है/जब कभी नाराज होती है/जुल्म को ढोने नहीं देती।” अर्थात प्रगति के जुनून में अन्याय का प्रतिकार करने के लिए पर्याप्त क्रोध भी होता है।
प्रगतिधर्मा चेतना एक अदृश्य बलिदान है। जो समाज के कालेपन को बाँध से छोड़े गए जल की तरह अनंतानंत दूर बहा ले जाता है। यथा-“रोशनी का नाम कुर्बानी/छोड़ देती बाँध का पानी।” नये उपमान व नूतन उपमेय की कसाबट इस गीत की विशेषता है। उर्दू के शब्द रौशनी को रोशनी लिखने में कवि की मंशा जनभाषा में बात करने की ही रही होगी। दार्शनिक अंदाज में कहा गया यह जनवादी गीत कवि की एक अनुपम प्रस्तुति है।
कहने का आशय यह कि स्मृति शेष रमेश रंजक जी अलग तरीके के बिम्बों को बेवाकी से कथ्य में ढालने में सिद्धहस्त हैं। प्रतीकों को सजीव बनाने में कुशल, अनूठी उपमाओं के धनी, चित्ताकर्षक नए रूपकों में दक्ष, नुकीले व तीखे प्रयोगों में सफल, भाव और शिल्प की दृढ़ता के साथ भाषाई आकर्षण को सहज करने वाले कोरी भावुकता से परे विसंगतियों पर प्रहार करने वाले जनपक्षधरता के एक ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएँ सहज किन्तु कालजयी हैं। ऐसी समर्थ रचनाधर्मिता व रचनाकार को मेरा शत शत प्रणाम प्रणाम।
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–ईश्वर दयाल गोस्वामी,
छिरारी (रहली) जिला-सागर, मध्यप्रदेश।