बाबा का सिनेमाहॉल
बाबा का सिनेमाहॉल
: दिलीप कुमार पाठक
क्रम २
नन्हका बाबा को भाला तो भोंका गया. अब प्रश्न उठता है भाला क्यों भोंकाया ? आखिर हमारे बाबुजी और चाचा लोगों के नन्हका बाबा भी तो चाचा ही थे, मेरे बाबा के अपने सहोदर सबसे छोटे भाई. मगर यह भी कि वे भी तो भाला लेकर ही आये थे. खाली हाथ तो आये नहीं थे. भाला-भाली के पहले तो बहुत बड़ी पंचइती चल रही थी. तो बात आती है नियति में महाभारत होना लिखा है, तो वह टलेगा थोड़े ही.
बाबा पाँच भाई थे. बड़का बाबा जो लारी गढ़ पर के मन्दिर के पुजारी थे स्व.बलदेव पाठक, इनकी बस दो बेटी थीं. जो अपने-अपने घर बस चुकी थीं.
उसके बाद मेरे बाबा मंझले. इनका पाँच बेटा और चार बेटी. जिसमें मेरे बाबुजी मंझले, सरकारी शिक्षक.
बड़का चाचा झोलटँगवा डॉक्टर और भूमिगत अस्थि विशेषज्ञ, साथ-साथ एक नम्बर के बरतुहार अपने समाज के.
संझला चाचा फौज बनने से फिसल गये तो एलोपैथी प्रैक्टिसनर बन गये.
छोटे चाचाजी भी सरकारी शिक्षक.
और नन्हका चाचा उस वक्त बीएएमएस, पटना से कर रहे थे.
संझला बाबा के दो लड़का और दो लड़की कुल चार बच्चे थे. मगर भाला-भाली के नौबत के बहुत पहले ही वो गोलोकवासी हो गये थे अचानक. जो फौज में थे.
छोटका बाबा भी पुरोहिती में थे बाभनों के गाँव में. तब बाभन लोग पुरोहिती को हेंठ ही समझते थे. अब तो उनकी ही आचार्यी सर्वमान्य होती सी लगती है. छोटका बाबा को एक लड़का और चार लड़की थीं.
बच गये नन्हका बाबा, नन्हका बाबा भी झोलटँगवा डॉक्टर ही थे कहीं किसी गाँव में. इनकी दो शादी हुई थी. पहली नन्हकी दादी से एक लड़की. नन्हकी दादी के असामयिक निधन पश्चात दूसरी नन्हकी दादी आयीं, उनसे तीन लड़के और एक लड़की.
तो भाला भोंकाने के बाद सबकुछ शान्त हो गया था. नन्हका बाबा को सब गाँव वाले उ अगना के दलान पर टाँग कर ले आये थे. हम भी सपरिवार अपने घर में आ गये थे. कुछ क्षण पश्चात् उ अगना से रोबा-रोहट सुनाई देने लगा था. हम सपरिवार सन्न हो गये थे. यहाँ हम छुट्टी में आये थे. बाबुजी सपरिवार रहते थे गोह में. छुट्टी हम लोगों का कोरहाग हो गया था. यहाँ उस वक्त स्थायी तौर पर बाबा, बड़का चाचा और उनका परिवार, संझिला चाचा के बड़े लड़के और छोटका चाचा क्योंकि वे गाँव के बगल के पोखमा गाँव के मध्य विद्यालय में शिक्षक थे, अत: उनका परिवार रहता था. उनका एक ही बेटा था जो उस वक्त चार साल का था. छोटे चाचा विद्यालय गये हुए थे. इनके विद्यालय में छुट्टी तो हो गयी थी. मगर अभी गाँव के सर्वे का कार्य चल रहा था, अत: सर्वे की खातिर जाना पड़ता था.
अपने घर के मेन दरवाजे में बरेठा लग गया था और हमारे बाबुजी और बड़का चाचा सोंच रहे थे, “अब का करें ? चचा के तो हमनी……”
दरबाजे तरफ से सिकड़ी बजने की आवाज आयी, ” अवध जी, अवध जी…..”
फाँट से झाँकने पर एक राजपुत बीए बाबु दिखे.
धीरे से दरबाजा खोला गया.
“आपलोग भागिए. लगता है आपके चाचा अब बचेंगे नहीं. मडर केस चलेगा. सब बहका रहे हैं. शकुराबाद जाने की तैयारी में हैं. जितना जल्दी हो.”
हम तो सुने तो एकदम सन्न हो गये. ऐसा कह वो चले गये. हम किबाड़ बन्द कर फिर घर के अन्दर हो गये.
तब हमारे यहाँ की माँ-चाची भी कलपने लगी और बाबुजी एवं बड़का चाचा को कोसने लगीं.
सब कांसा-पीतल के बरतन फटाक-फटाक कुँआँ के हवाले किया जाने लगा, पुलिस से सुरक्षा के ख्याल से.
और कुछ क्षण पश्चात् हम सभी पुरूष सदस्य केवल चार-चार वर्ष का दो भाई को छोड़कर अज्ञातवास की तरफ चल दिये थे. जिनमें बड़का चाचा, बाबुजी, बाबा, मेरे बड़े भइया, बड़का चाचा के लड़के, संझला चाचा के बड़े लड़के कुल छे थे. बाहर निकले तो एकदम सन्नाटा. करीब-करीब पूरा गाँव नन्हका बाबा को लेकर शकुराबाद थाना चल गया था. ऐसा प्रतीत हो रहा था. भूमिगत होने के क्रम में ख्याल आया छोटे चाचा जी तो अपने विद्यालय गये हैं. तब शंकर बिगहा के एक यादव जी को वहाँ भेजा गया सब हालात बताकर कि विद्यालय से वो घर न जाएँ, सीधे लारी पहुँचे.
तब हम लारी गढ़ के लंगटा बाबा आश्रम में अपने छोटे चाचा जी का इन्तजार करने हेतु पहुँच गये थे. जहाँ चाचा जी पहुँचते-पहुँचते सात बजा दिये थे.
टिपण्णियाँ:
दयाशंकर सिंह: कुटुंब परिकथा पढा।कमोबेश हर खानदान की यही कहानी है ।
कृपया यह बताने की कृपा करे कि ” भूमिगत अस्थि विशेषज्ञ ” किस पेशा को कहते है।
मैं: जमीन के अन्दर दबी हुई अस्थि मतलब कि हड्डी की जानकारी रखनेवाला. अब ये अस्थि कई प्रकार के हैं, जो वास्तुशास्त्र के विषय हैं. वराहमिहिर की वृहतसंहिता में इसकी बड़ी अच्छी चर्चा मिलती है. यह पारम्परिक विद्या के अन्तर्गत आता है. अपने बड़का चाचा से इस रहस्मयी विद्या को जानने की बड़ी कोशिश किया था. मगर वो टालते गए. इसका ज्ञान नहीं दिए.
दयाशंकर सिंह: बहुत बहुत धन्यावाद ।मुझे भी ऐसा ही आभास था , लेकिन आपका आलेख मेरी शंका एव दुविधा को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया ।
मुझे बड़ी पीड़ा हुई कि आप के चाचा जी आपके आग्रह तथा उत्कंठा के बाबजूद आपको विद्यादान नही किए !
हमारे आर्यावर्त की महान विद्याए हमारे ऋषि -मुनियो एव आचार्यो के स्वाभिमान (!) के कारण विलुप्त होती चली गई । फलस्वरूप भारत पिछडता एव कमजोर होता चला गया तथा विदेशी /फिरगीं से लुटता पिटता रह कर सदियो गुलामी की जंजीरो मे जकड़ा रहा।
नरेश शर्मा: आपके बिहार की भूमि ही आदिकाल से रक्त रंजित प्रतीत होती है ब्राह्मण और हिंसा का कैसा साथ
मैं: खासकर मगध क्षेत्र.
रमेश शर्मा: जी यह क्षञीय संस्कार ब्राह्मनो मे।
मैं: आपस में लड़-झगड़कर ही सब खतम कर दिए.
महेन्द्र शाकद्वीपीय: कैसे बेबाकी के साथ सब कुछ कह देते है ? सब के बस की बात नही । अब भाला भोकानें के बाद चाचा जी का क्या हुआ ? कही ….. .स्थिति को स्पस्ट करने का कृपा करे ।
मैं: जी कोशिश करूँगा क्योंकि मैं तो तडीपार हूँ.
मैं: मुझे लगता है, अपने बीते दिनों को याद करने से, याद करते हुए उसका मूल्यांकन करने से आदमी बहुत कुछ सीखता है. सही गलत की समझ बनती है. आगे सुधरकर चलने की गुँजाइश तो जरूर ही बनती है. हम क्या हैं इस बात की थाह पता करना जरूर चाहिए. मुझे लगता है वह जो लड़ाई हुई, एकदम बेमतलब की लड़ाई हुई थी. उस वक्त हम पढ़ाई कर रहे थे और लड़ाई में फँस गये थे.