बाबा और दादी
कुंडलिया,
बाबा बैठ मुडेर पर,देखे जग की राह।
दादी नियरे बैठ कर,मन में करती चाह।
मन में करती चाह,करें साइकिल सवारी।
बाबा तकते राह, चलें अब बारी बारी।
कहें प्रेम कविराय,सब स्वारथ से आबा।
संतानों के बिना, लगे जग सूना बाबा।
डॉ प्रवीणकुमार श्रीवास्तव, प्रेम