बाबली है खुद
जिंदगी गाना मर्जी से गवाती है हमे
कभी सुर कभी बेसुरा जताती है हमे
लय ताल खुद भूल जाती है अक्सर
दोषी इस सबका, बताती है हमें
अनजान रास्तो पर खुद निकल आती है
भटक जाती है तो बरगलाती है हमे
कितनी ही बार मुकर जाती है खुद, अपनी बात से
बादे तोड़ती है खुद, कसम खिलाती है हमे
बचपन भाया, तो जवां कर दिया, कुछ कर पाते तो बूढ़ा
बाबली है खुद और पागल बनाती है हमे
जानने को कितना कुछ है, जानती है जिंदगी
वक़्त को कम और कम कर सताती है हमे
फिर भी खुश हूँ और रहने में बुराई क्या है
हर पल में कितने एहसास करा देती है हमे